शिशु काल मरा है जवानी मरी , दुख मेरे ही हाथों से पाले गये सब सुंदर एक से एक बने , जैसे रूप के साँचे में ढाले गये चुकता ही रहा चलता ही रहा , कभी पाँवों को छोड़ न छाले गये जितने भी अभाव रहे जग में , सब मेरी ही झोली में डाले गये ।। फिर मेरी व्यथा को सँवारा गया , सपनों को मेरे दुतकारा गया करुणा को दुराग्रह के कर से , करवाल उठाकर मारा गया सदभावना की कलियाँ झुलसीं , रस रक्त विभूति का गारा गया अनुराग के गाँव में खून हुआ , फिर वेदना को ललकारा गया ।। #चीखती खामोशी