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वो शाम का यूं ढल जाना , नई दुल्हन के शर्माने सा लग

वो शाम का यूं ढल जाना ,
नई दुल्हन के शर्माने सा लगता है,
कभी इठलाती है,
कभी लहरों संग बलखाती है,
प्रकृति कितनी खूबसूरत अल्हड़ सी मुस्काती है,
उस चत्रकार  के जादू का कोई हिसाब कहां,
सागर अंबर मिल रहे , ऐसे मधुर मिलन का जवाब कहां।
प्रेम ऐसे ही अवसर पर एक दूजे की आंखों में बस जाता है।।
नए नए नगमे बनते हैं, हर दिल कवि बन जाता है,
कुछ यूं ही बैठे बैठे शाम भी ढल जाती है,
नए सुबह की आस लिए,
रात हमें सुलाती है,
प्रकृति , एक पहेली है,
प्रेमचक्षु से स्पर्श करो तो ,
यही पक्की सहेली है।।
जीने की आस जगती है,
खुद को खोके,नई खुशी दे जाती है
प्रकृति की कीर्ति ज़र्रे ज़र्रे में अपनी छवि दिखाती है,
हां ये सुंदर श्रृष्टि हमें हर पल अपना दीवाना बनाती है।।

©Kirti Pandey
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