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आज फिर शाम हुआ कल की तरह ही निकल पड़ा हूँ अपने घर

आज फिर शाम हुआ
कल की तरह ही 
निकल पड़ा हूँ
अपने घर से 
उस घर की तरफ
जो रोज़ रोज़ 
मेरे रास्ते में 
मेरे निगाहों को 
अपनी ओर खींचता है
लेकिन घर के दरवाजे
और सबसे ऊपरी छत 
पूरी सुनसान सी है।
शायद कभी किसी शाम
मैं निकलूँ घर से 
उस घर की तरफ 
कोई शख्स दिख जाए वहां
फिर न जाना चाहूं उस रास्ते।
लेकिन नहीं
मुझे रोज़ देखना  है
कोई शख्स नही
बल्कि हर शाम 
वो रास्ते
उसी निगाहों को साथ लिए
उस घर की तरफ ले जाना है
ताकि फिर वो दरवाजें 
और सबसे ऊपरी छत
सुनसान दिखे। #please_highlight_this 
#pk_poetry
आज फिर शाम हुआ
कल की तरह ही 
निकल पड़ा हूँ
अपने घर से 
उस घर की तरफ
जो रोज़ रोज़ 
मेरे रास्ते में 
मेरे निगाहों को 
अपनी ओर खींचता है
लेकिन घर के दरवाजे
और सबसे ऊपरी छत 
पूरी सुनसान सी है।
शायद कभी किसी शाम
मैं निकलूँ घर से 
उस घर की तरफ 
कोई शख्स दिख जाए वहां
फिर न जाना चाहूं उस रास्ते।
लेकिन नहीं
मुझे रोज़ देखना  है
कोई शख्स नही
बल्कि हर शाम 
वो रास्ते
उसी निगाहों को साथ लिए
उस घर की तरफ ले जाना है
ताकि फिर वो दरवाजें 
और सबसे ऊपरी छत
सुनसान दिखे। #please_highlight_this 
#pk_poetry