जन्म के साथ ही जीवन में स्वार्थ आता है। जीव अपने ऋणानुबंधों से पर्यावरण पाता है। पर्यावरण स्वार्थ को परमार्थ में बदले या उसे ख़त्म कर निःस्वार्थ बना दे। जीवन का एक घटक प्रारब्ध भी होता है। जिसे आज की जीवनशैली स्वीकारने में अब- तब करती रहती है। परिणामस्वरूप हम यकायक हुए व्यवहारगत परिवर्तनों को समझे बिना ही परस्पर दोषारोपण करने लगते हैं जो पूरी तरह सही नहीं होता। बाद में इसके लिए पछतावा भी होता है। कोई है ऐसा जिसे कभी अपने निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ हो? क्या आप हैं? ♥️ आइए लिखते हैं #मुहावरेवालीरचना_315 जन्म के साथ ही जीवन में स्वार्थ आता है। जीव अपने ऋणानुबंधों से पर्यावरण पाता है। पर्यावरण स्वार्थ को परमार्थ में बदले या उसे ख़त्म कर निःस्वार्थ बना दे। जीवन का एक घटक प्रारब्ध भी होता है। जिसे आज की जीवनशैली स्वीकारने में