इस आनी जानी दुनिया की है रीत यही अब क्या कीजे। जीना पड़ता है यह जीवन दुःख झेल सभी अब क्या कीजे।। जाने वाला भी बिन सोचे जाता है चला करके तन्हा- दे जाता है बस यादों की भारी गठरी अब क्या कीजे। साँसों की नाज़ुक सी डोरी जब टूट चली अब क्या कीजे। लुट जाती है छन भर में ही सुख की नगरी अब क्या कीजे। बस कोई चलता भी तो नहीं मानव का अपनी किस्मत पर - चाहो तब भी चलती ही नहीं अपने मन की अब क्या कीजे। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©Ripudaman Jha Pinaki #क्या_कीजे