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जागरण मे .प्रमाद मे मूर्छा मे भी शब्दों का खे

जागरण मे  .प्रमाद  मे  मूर्छा मे  भी
शब्दों  का खेलतो 
चलता ही रहता है
और हम  इस शाब्दिक खेल मे बाह्य वातावरण
को भी   विस्मृत  क़र देते है  और कई बार  हम
उन्ही शब्दों क़े चक्रव्यूह  मे फंस  क़र
अपने दुख  दर्दों की भी. उपेक्षा  करने लगते हैँ
ये मन तो नया बहुत कुछ करना चाहता हैऔर नई. राहों क़े द्वार  भी खोलना चाहता है 
पर ये तभी  सम्भव है  ज़ब हम धब्दों की  दुनिया
से  बाहर  आएं

©Parasram Arora शब्दों का खेल......
जागरण मे  .प्रमाद  मे  मूर्छा मे  भी
शब्दों  का खेलतो 
चलता ही रहता है
और हम  इस शाब्दिक खेल मे बाह्य वातावरण
को भी   विस्मृत  क़र देते है  और कई बार  हम
उन्ही शब्दों क़े चक्रव्यूह  मे फंस  क़र
अपने दुख  दर्दों की भी. उपेक्षा  करने लगते हैँ
ये मन तो नया बहुत कुछ करना चाहता हैऔर नई. राहों क़े द्वार  भी खोलना चाहता है 
पर ये तभी  सम्भव है  ज़ब हम धब्दों की  दुनिया
से  बाहर  आएं

©Parasram Arora शब्दों का खेल......