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पेज-95 ये शब्द उस पिता के हृदय को चीरे डाल रहे थे.

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ये शब्द उस पिता के हृदय को चीरे डाल रहे थे... कन्या इस समय केवल एक गऊ की भाँति चुपचाप बैठी हुई है... सब कुछ देखकर भी केवल मौन... किन्तु इन बेहद करुण दृश्य ने दूल्हे की सभी बहनों को अपने पिता का स्मरण करा दिया ... सभी भावुक हो उठीं और मनीषा के पास आकर बैठ गईं...
आगे कैप्शन में.. 🙏

©R. K. Soni #रत्नाकर कालोनी 
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मनीषा को उनके आने से मानो डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो.. ऐसा लगा.. और बाहर बह जाने वाले वो अश्रु मोती अभी अनुकूल समय की प्रतीक्षा में आँखों में ही छुपकर रह गये... 
पुरोहित जी मंत्रोच्चार करते जा रहे हैं... धीरे धीरे पिता का कलेजा बैठता जा रहा है... मानो उसके हाथों से अब उसकी खुशियों का संसार छूटने वाला है...मगर...! मगर...! बेटी अपने पिता की फिक्र में अश्रुओं को अन्दर हृदय में भरते जा रही है.. और पिता अपनी पुत्री की खातिर अपने आप को मजबूत दिखा रहा है..!
मनीषा की माँ केवल उन रस्मों को ऐसे निभाते जा रहे हैं मानो विधाता ने उन्हें केवल इन्हीं कर्तव्यों के लिये बनाया हो... वो माँ बस नियति के आगे निःशब्द हो कर गई...!
यहाँ भाई एक दस्तूर में शामिल होता है... जब पिता अपनी पुत्री वर को दान देता है तब उस संकल्प में भाई ही जल डालकर संकल्प पूरा कराता है... लेकिन भाई तो इतना विशाल हृदय का नहीं था... वो तो बस भावों से हारा था.... लेकिन मानवीय विवशता क्या नहीं कराती... अगर आज भाई की आँखों से एक अश्रु भी गिरा तो पिता पुत्री कमजोर पड़ जायेंगे और इन पवित्र रस्मों के निर्वाह में बड़ी कठिनाई हो जायेगी..! भाई जिसका मन जी भर रोना चाह रहा है मगर बहना का सब्र कहीं टूट ना जाए, बस इसलिये खुद इतना समेट रख्खा है मानो पत्थर कोई केवल सुन रहा है और कर्तव्य निभा रहा है....!
ये दृश्य अच्छे अच्छों को पिघला देता है साहब.... "दान" तो धन का भी बिना अहंकार के नहीं होता... लेकिन उस पिता छाती कहां जाती है जो दान भी देता है तो चुपचाप सर झुकाकर...! आज दूल्हे की बहनें केवल एक नारी बनकर इस करुण दृश्य को नेत्रों से हृदय में आत्मसात कर रहीं हैं... हर नारी का मन शायद उस विधाता से केवल एक.. केवल एक ही सवाल कर रहा होगा....! क्यूँ ये रस्म बनाई..? 
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ये शब्द उस पिता के हृदय को चीरे डाल रहे थे... कन्या इस समय केवल एक गऊ की भाँति चुपचाप बैठी हुई है... सब कुछ देखकर भी केवल मौन... किन्तु इन बेहद करुण दृश्य ने दूल्हे की सभी बहनों को अपने पिता का स्मरण करा दिया ... सभी भावुक हो उठीं और मनीषा के पास आकर बैठ गईं...
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मनीषा को उनके आने से मानो डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो.. ऐसा लगा.. और बाहर बह जाने वाले वो अश्रु मोती अभी अनुकूल समय की प्रतीक्षा में आँखों में ही छुपकर रह गये... 
पुरोहित जी मंत्रोच्चार करते जा रहे हैं... धीरे धीरे पिता का कलेजा बैठता जा रहा है... मानो उसके हाथों से अब उसकी खुशियों का संसार छूटने वाला है...मगर...! मगर...! बेटी अपने पिता की फिक्र में अश्रुओं को अन्दर हृदय में भरते जा रही है.. और पिता अपनी पुत्री की खातिर अपने आप को मजबूत दिखा रहा है..!
मनीषा की माँ केवल उन रस्मों को ऐसे निभाते जा रहे हैं मानो विधाता ने उन्हें केवल इन्हीं कर्तव्यों के लिये बनाया हो... वो माँ बस नियति के आगे निःशब्द हो कर गई...!
यहाँ भाई एक दस्तूर में शामिल होता है... जब पिता अपनी पुत्री वर को दान देता है तब उस संकल्प में भाई ही जल डालकर संकल्प पूरा कराता है... लेकिन भाई तो इतना विशाल हृदय का नहीं था... वो तो बस भावों से हारा था.... लेकिन मानवीय विवशता क्या नहीं कराती... अगर आज भाई की आँखों से एक अश्रु भी गिरा तो पिता पुत्री कमजोर पड़ जायेंगे और इन पवित्र रस्मों के निर्वाह में बड़ी कठिनाई हो जायेगी..! भाई जिसका मन जी भर रोना चाह रहा है मगर बहना का सब्र कहीं टूट ना जाए, बस इसलिये खुद इतना समेट रख्खा है मानो पत्थर कोई केवल सुन रहा है और कर्तव्य निभा रहा है....!
ये दृश्य अच्छे अच्छों को पिघला देता है साहब.... "दान" तो धन का भी बिना अहंकार के नहीं होता... लेकिन उस पिता छाती कहां जाती है जो दान भी देता है तो चुपचाप सर झुकाकर...! आज दूल्हे की बहनें केवल एक नारी बनकर इस करुण दृश्य को नेत्रों से हृदय में आत्मसात कर रहीं हैं... हर नारी का मन शायद उस विधाता से केवल एक.. केवल एक ही सवाल कर रहा होगा....! क्यूँ ये रस्म बनाई..? 
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