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++ग़ज़ल ++(२२१ २१२१ १२२१ २१२ ) कुछ इस तरह से ज़िंदगी

++ग़ज़ल ++(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
कुछ इस तरह से ज़िंदगी भर  बेख़ुदी रही 
दरिया के पास होते हुए तिश्नगी रही 
**
दुनिया के रंज-ओ-ग़म से न  आज़ाद हम हुए 
फ़ितरत में पर फ़क़ीर सी  आवारगी रही 
**
सुनने को मुंतज़िर थे जो हम बात आपसे 
वो आपके लबों से मगर अनकही रही 
**
चलने को साथ भी चले कुछ दूर हम सनम 
लेकिन दिलों के दरमियाँ दूरी  बनी रही 
**
क़िस्मत की बात मत करें  उससे तो ज़ीस्त में 
कोई भी हो मुआमला नाराज़गी रही 
***
समझूँ इसे ख़ुदा की इनायत   कि  मौजिज़ा*(चमत्कार ) 
इस दिल में शम'अ प्यार की हर पल जली रही 
**
शायद ही कोई शख़्स रहेगा सुकून से 
जिसकी ज़र-ओ-ज़मीन पे दीवानगी  रही 
**
उम्मीद उस से क्या करें मुफ़लिस पे रहम की 
जिसकी रिदा जनम से अगर  मखमली रही 
**
जुल्म-ओ-सितम को देख के ख़ामोश रह गए  
फिर क्या 'तुरंत' आपकी ये शाइरी रही 
**
रवि गुप्ता RT ++ग़ज़ल ++(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
कुछ इस तरह से ज़िंदगी भर  बेख़ुदी रही 
दरिया के पास होते हुए तिश्नगी रही 
**
दुनिया के रंज-ओ-ग़म से न  आज़ाद हम हुए 
फ़ितरत में पर फ़क़ीर सी  आवारगी रही 
**
सुनने को मुंतज़िर थे जो हम बात आपसे
++ग़ज़ल ++(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
कुछ इस तरह से ज़िंदगी भर  बेख़ुदी रही 
दरिया के पास होते हुए तिश्नगी रही 
**
दुनिया के रंज-ओ-ग़म से न  आज़ाद हम हुए 
फ़ितरत में पर फ़क़ीर सी  आवारगी रही 
**
सुनने को मुंतज़िर थे जो हम बात आपसे 
वो आपके लबों से मगर अनकही रही 
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चलने को साथ भी चले कुछ दूर हम सनम 
लेकिन दिलों के दरमियाँ दूरी  बनी रही 
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क़िस्मत की बात मत करें  उससे तो ज़ीस्त में 
कोई भी हो मुआमला नाराज़गी रही 
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समझूँ इसे ख़ुदा की इनायत   कि  मौजिज़ा*(चमत्कार ) 
इस दिल में शम'अ प्यार की हर पल जली रही 
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शायद ही कोई शख़्स रहेगा सुकून से 
जिसकी ज़र-ओ-ज़मीन पे दीवानगी  रही 
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उम्मीद उस से क्या करें मुफ़लिस पे रहम की 
जिसकी रिदा जनम से अगर  मखमली रही 
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जुल्म-ओ-सितम को देख के ख़ामोश रह गए  
फिर क्या 'तुरंत' आपकी ये शाइरी रही 
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रवि गुप्ता RT ++ग़ज़ल ++(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
कुछ इस तरह से ज़िंदगी भर  बेख़ुदी रही 
दरिया के पास होते हुए तिश्नगी रही 
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दुनिया के रंज-ओ-ग़म से न  आज़ाद हम हुए 
फ़ितरत में पर फ़क़ीर सी  आवारगी रही 
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सुनने को मुंतज़िर थे जो हम बात आपसे