मेरे ह्रदय की राजधानी तक ज़ो राजपथ जाता था. उस पर आवागमन करने वाले अनगिनित वैचारिक वाहनो का तांता लगा हुआ था और वहशी हादसों का अभिशप्त दौर भी आरम्भ हो गया था..... तभी तो मै अपना तथाकथित पथ भूल कर भटकता हुआ अनजानी ऊबड़ खाबड़ पगडंडी पर पहुंच गया था.. और अब रही सही उम्मीद अपने गंतव्य तक पहुंचने की भी बची नहीं थीं क्योंकि इस कच्चे मार्ग पर सन्नाटा तो था ही साथ मे यहां ज़हरीली जंगली झाडिया भी थी और नफरत क़े काँटों से सज़ी इस पगडंडी पर चल कर मुझे अपने गंतव्य तक पहुंचना भी था ©Parasram Arora गंतव्य.......