*** कविता *** *** मेरा इश्क़ *** " इश्क़ हैं की जनाब क्या बात करे हम, उलफ़ते-ए-हयात नवाइस कर तो देते , आखिर किस दरिया में उतरते ऐसे में हम, कुर्बत मुनासिब हो जो भी जैसा भी हो, मैं तुम्हें इस मलाल से छोड़ तो नहीं देते, बेशक इक तरफ़ा इश्क़ होने देते, मैं दरिया था मुझे और समन्दर होने देते, बेशक आती मौज लहरों की, मुझे इस बहाने ही सही मेरा इश्क़ छुपाने तो देते , तुम जो कही मुनासिब कर पाते , कही किसी रोज बात मुझसे , ऐसे में मैं खुद को कहा तक सम्हाल पाता, गुमनाम गुमसुदा सा कहीं मेरा इश्क़, उलफ़ते-ए-हयात इस बनाम को क्या नाम देते, इस ख़्वाहिश से खुद को कहाँ कही और मसरूफ़ रख पता, मंसूब हुआ हूँ जब से तुम से ऐसे में , कहाँ कही खुद को तुझसे बेजार करते. " --- रबिन्द्र राम ©Rabindra Kumar Ram *** कविता *** *** मेरा इश्क़ *** " इश्क़ हैं की जनाब क्या बात करे हम, उलफ़ते-ए-हयात नवाइस कर तो देते , आखिर किस दरिया में उतरते ऐसे में हम, कुर्बत मुनासिब हो जो भी जैसा भी हो, मैं तुम्हें इस मलाल से छोड़ तो नहीं देते, बेशक इक तरफ़ा इश्क़ होने देते,