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ग़ज़ल आज उसका ख़त मिला और तो कुछ भी नहीं, थोड़ा सा ये

ग़ज़ल

आज उसका ख़त मिला और तो कुछ भी नहीं,
थोड़ा सा ये  दिल दुखा और  तो कुछ भी नहीं।

दोस्तों के हाथों में जब दिखा खंज़र तो मैं,
था रक़ीबों से ख़फ़ा और तो कुछ भी नहीं।

चाहे चारासाज़ों को जितना भी तुम लो बुला,
दर्द की वो ही दवा और तो कुछ भी नहीं।

रु-ए-ताबां देखकर इतना ही जाना फ़क़त,
बस निग़ाहों को सज़ा और तो कुछ भी नहीं।

बेदिली दुनिया में यां बेमुरव्वत शक्स भी,
चाहता है बस वफ़ा और तो कुछ भी नहीं।

हाल-ए-दिल कुछ यूँ बयाँ हो गया के ख़त पे बस,
चार अश्क़ों के सिवा और तो कुछ भी नहीं।

मैंने कब चाहा वो चाहे मुझे मेरी तरह,
बस वो दिख जाए ज़रा और तो कुछ भी नहीं।

चल रही साँसें मगर ज़िन्दगी ये थम गई,
हिज़्र की ऐसी सज़ा और तो कुछ भी नहीं।

दूर होकर भी न थी दूरियाँ जब दरमियाँ,
पास होकर फासला और तो कुछ भी नहीं।

इश्क़ है मुझसे ये मालूम गैरों से हुआ,
है फ़क़त इतना गिला और तो कुछ भी नहीं।

मैंने माँगे थे कहाँ चाँद-ओ-तारे कभी,
वो मिले मुझको ख़ुदा और तो कुछ भी नहीं।

इत्तफाकन सच बयाँ हो गया महफ़िल में 'रण'',
इतनी सी अपनी ख़ता और तो कुछ भी नहीं।

पूर्णतया स्वरचित ,स्वप्रमाणित,मौलिक रचना,सर्वाधिकार सुरक्षित

अंशुल पाल 'रण'
जीरकपुर (मोहाली)

©Anshul Pal
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