✍️ग़ज़ल रुह तक तेरे मैं आना चाहता हूं इश्क़ भी मैं सुफियाना चाहता हूं है मुझे ग़ालिब से भी इश्क़ लेकिन मीर को मैं गुनगुनाना चाहता हूं दस्तरस* में एक लम्हा भी नहीं है क्या अजब है मैं जमाना चाहता हूं तेरे चहरे के हंसी कुछ रंग लेकर फूल पे तितली बनाना चाहता हूं इक संमदर है रखा जो पास मेरे कतरा कतरा मैं लुटाना चाहता हूं तू गई? दुनिया गई?या ग़म गए ? क्या गया जो मैं बचाना चाहता हूं है जहां पर जलजलों का खौफ ज्यादा मैं वहां पर घर बनाना चाहता हूं झूठ ही कह दे मैं तुमको चाहती हूं मैं घड़ी भर मुस्कुराना चाहता हूं क्या करूं दिल में तुझे महफूज रखकर जा तुझे मैं भूल जाना चाहता हूं थक गया हूं जिंदगी के इस सफर से मौत से रिश्ता निभाना चाहता हूं..!! ✍️ग़ज़ल रुह तक तेरे मैं आना चाहता हूं इश्क़ भी मैं सुफियाना चाहता हूं है मुझे ग़ालिब से भी इश्क़ लेकिन मीर को मैं गुनगुनाना चाहता हूं