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आँसूँ के भी बाग सजाने पड़ते हैं मुस्कानों के दाम लग

आँसूँ के भी बाग सजाने पड़ते हैं
मुस्कानों के दाम लगाने पड़ते हैं
श्रोताओं को यार लुभाना मुश्किल है
कैसे कैसे खेल दिखाने पड़ते हैं।

कुमार राघव

©साहित्य संजीवनी
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