मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता, नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता । नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए, नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता । वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा, किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता । वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे, कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता । जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ, यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता । खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में, तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता । नमन कैफ़ी आज़मी साहब !!