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सीख रही हूँ मैं... रोते -रोते मुस्कुराना... बेधडक

सीख रही हूँ मैं...
 रोते -रोते मुस्कुराना... बेधडक बोलते-बोलते चुप हो जाना... चलते -चलते पता भूल जाना... खड़े -खड़े खुद में ही खो जाना.. हँसते-हँसते एकदम से रो देना... सम्भलते-सम्भलते गिर पड़ना...और न जाने क्या -क्या... बस सीखती ही जा रही हूँ...सीखते-सीखते कभी आभास ही नहीं होता...कि औचित्य क्या है इन सबका...औचित्य कुछ भी न होते हुए भी...न जाने क्यों??? ये सब निरर्थक नहीं लगता... जुड़ चुकी है इन सबसे मेरी सार्थकता।

©ख़्वाबों की दुनिया
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