ख्वाबों में निकली मैं टहलने सोच के जंगल में लगी बढ़ने फैला चहुओर कोहरा घनघोर था काल्पनिक आकृतियों का शोर था अपने स्तित्व को जो मैं लगी समझने रास्तों की भूलभुलैया में गई उलझने मेरे अवचेतन मस्तिष्क की उड़ान ने चेतन मस्तिष्क को कहीं ठहरने न दिया आंकलन कर सकूं विधि के विधान का अज्ञानता ने मेरी चेतना को टहलने न दिया। ©alka mishra #टहलना #Walk