सपने बिकते चौराहों पर।। जब बिकते हैं सपने चौराहों पर, रोटियां सिंकतीं हमारी आहों पर। है भ्रमित दिशा, दशा भी दरिद्र, कैसा गर्व अपने ही भुजबाहों पर। धरा बंजर थी, बंजर ही रही, नारों का ही बस गुणगान रहा। जिसकी लाठी, रही भैंस उसीकी, बस लक्ष्मी का ही सम्मान रहा। कौन कपूत, है कौन सपूत, निर्णय कब वोटों से हो पाता है। मन का दर्द है गहरा बड़ा, दूर कब होंठों से हो पाता है। मैं छला गया, संग दगा हुआ, इस लोकतंत्र के धोखे में। दुल्हन ले कर गया कोई, हम उलझे रहे बस रोके में। बिन डोरी का पतंग हुआ मैं, हवा के संग ही बहता हूँ। स्मृतिपटल पर धूल चढ़े थे, औरों के रंग ही रंगता हूँ। अधिकारों की माला जपता रहा, कर्तव्यभाव था शेष नहीं। टके टके मैं बिक जाता हूँ, आत्मा का भी रहा अवशेष नहीं। धिक्कार रहा मैं बैठ स्वयं को, मन मसोस रह जाता हूँ। बारिस की बूंदे धरा जो मांग रही, बन ओस रह जाता हूँ। कलंक लिखा निज हाथों से, शोर का स्वर कहाँ से लाऊं मैं। पापी मन, तपस्या भी नहीं, जोर का वर कहाँ से लाऊं मैं। एक धर्म बचा था पथ दिखलाने को, अब उसका भी व्यापार हुआ। जैसे चाहा, तोड़ा मोड़ा और बेचा, मंदिर मस्ज़िद भी बाजार हुआ। नियत किसकी कहाँ भली है, किन बातों पर मैं यकीन करूँ। बिन सोचे, प्रतिनिधि चुनता हूँ, बिन जाने, जुर्म बड़ा संगीन करूँ। हरियाली का ख़्वाब था देखा, बंजर धरती पे दाने बुनता हूँ। हैं ख़्वाब लिए फरियाद खड़े, अब उनके भी ताने सुनता हूँ। लोकतंत्र पर बात हो खुल के, अधिकारों कर्तव्यों का मेला है। आ मिल दूर करें उन ज़ख्मों को, जो इस देश ने सालों झेला है। एक मशाल जलानी है, रौशन, सारा कुनबा हो जाएगा। खुद की ताकत जान जरा, तू इंसां से अजूबा हो जाएगा। ©रजनीश "स्वछंद" सपने बिकते चौराहों पर।। जब बिकते हैं सपने चौराहों पर, रोटियां सिंकतीं हमारी आहों पर। है भ्रमित दिशा, दशा भी दरिद्र, कैसा गर्व अपने ही भुजबाहों पर। धरा बंजर थी, बंजर ही रही,