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मर्यादा टापूं।। तुम आज कहो तो मैं ये छापूं, थोड़ी

मर्यादा टापूं।।

तुम आज कहो तो मैं ये छापूं,
थोड़ी मर्यादा मैं अपनी टापूं।
जो देख देख भी दिखा नहीं,
जो ज्ञान की मंडी बिका नहीं।
जो गाये गए ना भाए गए,
बस पांव तले ही पाए गए।
जीवन जिनका फुटपाथी रहा,
कपड़े के नाम बस गांती रहा।
एक लँगोटी जिन्हें नसीब नहीं,
थाली भी जिनके करीब नहीं।
रक्त शरीर दूध छाती सूखा,
नवजात पड़ा रोता है भूखा।
भविष्य कहां वर्तमान नहीं,
जिनका जग में स्थान नहीं।
जमीं बिछा आसमां ओढ़कर,
सड़क पे सोया पैर मोड़कर।
नाक से नेटा मुंह से लार,
मिट्टी बालू जिनका श्रृंगार।
चलो आज उनकी कुछ कह दूं,
एक गीत उनपे भी गह दूँ।
चौपाई छंद दोहा या श्लोक,
लिख डालूं जरा उनका वियोग।
जो कलम पड़ी थी व्यग्र बड़ी,
कण कण पीड़ा थी समग्र खड़ी।
भार बहुत रहा इन शब्दों का,
किस कंधे लाश उठे प्रारबधों का।
आंसू रोकूँ या रोकूँ शब्दधार को,
किस कवच मैं सह लूं इस प्रहार को।
जाने किस पर मैं क्रोध करूँ,
हूँ मनुज क्या इतना बोध करूँ।
क्या बचा है जो मैं शेष लिखूं,
किन कर्मों का कहो अवशेष लिखूं।
मैं नीति नियंता विधाता नहीं,
मैं एक यंत्र हुआ निर्माता नहीं।
पर कहीं कलेजा जलता है,
जब लहु हृदय में चलता है।
मैं उद्धरित नहीं उद्धार करूँ क्या,
कुंठित मन से उपकार करूँ क्या।
मुझपे मानो ये सृष्टि रोयी है,
मनुज की जात भी मैंने खोयी है।
मैं रहा जगा गतिमान रहा,
पर हाय, आत्मा सोयी है।
हाँ हाँ आत्मा सोयी है।
सच है आत्मा सोयी है।

©रजनीश "स्वछंद" मर्यादा टापूं।।

तुम आज कहो तो मैं ये छापूं,
थोड़ी मर्यादा मैं अपनी टापूं।
जो देख देख भी दिखा नहीं,
जो ज्ञान की मंडी बिका नहीं।
जो गाये गए ना भाए गए,
बस पांव तले ही पाए गए।
मर्यादा टापूं।।

तुम आज कहो तो मैं ये छापूं,
थोड़ी मर्यादा मैं अपनी टापूं।
जो देख देख भी दिखा नहीं,
जो ज्ञान की मंडी बिका नहीं।
जो गाये गए ना भाए गए,
बस पांव तले ही पाए गए।
जीवन जिनका फुटपाथी रहा,
कपड़े के नाम बस गांती रहा।
एक लँगोटी जिन्हें नसीब नहीं,
थाली भी जिनके करीब नहीं।
रक्त शरीर दूध छाती सूखा,
नवजात पड़ा रोता है भूखा।
भविष्य कहां वर्तमान नहीं,
जिनका जग में स्थान नहीं।
जमीं बिछा आसमां ओढ़कर,
सड़क पे सोया पैर मोड़कर।
नाक से नेटा मुंह से लार,
मिट्टी बालू जिनका श्रृंगार।
चलो आज उनकी कुछ कह दूं,
एक गीत उनपे भी गह दूँ।
चौपाई छंद दोहा या श्लोक,
लिख डालूं जरा उनका वियोग।
जो कलम पड़ी थी व्यग्र बड़ी,
कण कण पीड़ा थी समग्र खड़ी।
भार बहुत रहा इन शब्दों का,
किस कंधे लाश उठे प्रारबधों का।
आंसू रोकूँ या रोकूँ शब्दधार को,
किस कवच मैं सह लूं इस प्रहार को।
जाने किस पर मैं क्रोध करूँ,
हूँ मनुज क्या इतना बोध करूँ।
क्या बचा है जो मैं शेष लिखूं,
किन कर्मों का कहो अवशेष लिखूं।
मैं नीति नियंता विधाता नहीं,
मैं एक यंत्र हुआ निर्माता नहीं।
पर कहीं कलेजा जलता है,
जब लहु हृदय में चलता है।
मैं उद्धरित नहीं उद्धार करूँ क्या,
कुंठित मन से उपकार करूँ क्या।
मुझपे मानो ये सृष्टि रोयी है,
मनुज की जात भी मैंने खोयी है।
मैं रहा जगा गतिमान रहा,
पर हाय, आत्मा सोयी है।
हाँ हाँ आत्मा सोयी है।
सच है आत्मा सोयी है।

©रजनीश "स्वछंद" मर्यादा टापूं।।

तुम आज कहो तो मैं ये छापूं,
थोड़ी मर्यादा मैं अपनी टापूं।
जो देख देख भी दिखा नहीं,
जो ज्ञान की मंडी बिका नहीं।
जो गाये गए ना भाए गए,
बस पांव तले ही पाए गए।