लफ़्ज़ बिखरे पड़े हैं किताबों में यूँ, जैसे क़िस्सा कोई अधूरा रहा। मैंने चाहा बहुत ख़ुद को समझूँ, पर मैं ही मुझसे जुदा सा रहा। मुद्दतों से मैं ख़ुद में ही गुम हूँ, बाहरी दुनिया का भरम भी गया। एक ख़्वाब था जो हक़ीक़त न बन सका, साथ रहकर भी वो मेरा न था। मैं ख़ुद से ही मिलने की राहों में था, मगर लौटने का हौसला भी न था। उम्र भर वक़्त के साथ चलता रहा, पर वो लम्हा कहीं भी रुका न था। ख़ुद से मिलने की चाहत थी दिल में, मगर रास्ता कोई खुला न था। ©नवनीत ठाकुर #नवनीतठाकुर