संस्कृति।। आदि से अनंत तक, डाकुओं से संत तक। मैं ही तेरा सार हूँ, कृष्ण से कबीर पंथ तक। रौशन हुआ मैं जल रहा, कम्पित धरा में चल रहा। मैं विष्णु और महेश हूँ, ये जग है मुझमे पल रहा। विष पीये मैं नीलकंठ, मथुरा काशी धाम हूँ। कृष्ण की उदंडता हूँ, राम का प्रणाम हूँ। भीष्म का प्रण हूँ मैं, वृहद समर का रण हूँ मैं। तूणीर हूँ अर्जुन का मैं, दाउ भीम का घन हूँ मैं। मैं प्रलय, मैं शांत धार, विजेता का मैं कंठ हार। मैं दवानल मैं प्रबल, मैं वेदश्लोक मैं हूं सार। मैं वेद भी पुराण भी, मैं हूँ रथी सुजान भी। कृष्ण सा मैं सारथी, वाणी भी मैं कृपाण भी। मैं सीख हूँ, मैं ज्ञान हूँ, आधुनिक भी और पाषाण हूँ। मैं द्वंद्व द्वेष क्लेश हूँ, मैं ही विधि और त्राण हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" संस्कृति।। आदि से अनंत तक, डाकुओं से संत तक। मैं ही तेरा सार हूँ, कृष्ण से कबीर पंथ तक। रौशन हुआ मैं जल रहा,