मैं चाहूँ भी तो प से प्रेम नहीं लिख पाती पेट का सवाल मुँह बायें खड़ा हो जाता है म से मोहब्बत नहीं, सड़कों पे मारे मारे फिरते बेघरों का सवाल आता है कुछ भी कहो मकान ही लिखा जाता है इ से इंक़लाब ही याद करूँगी इश्क़ और ईश्वर की अफ़ीम नहीं क्योंकि अभी अ से आज़ादी नहीं मिली पितृसत्ता से लिखा है उन्होंने अस्मिता को ही मेरे नाम से... इसीलिए र से रोमियो नहीं रूढ़ियाँ याद आती हैं ज से जूलियट जाति के नाम पे जकड़ दी जाती है ध से धरती, धर्म के नाम पर बाँट दी जाती है.. ख से ख़्वाब नहीं आता बस खून, खून, खून... रगो से ज्यादा नालों में, सड़कों पे बहता है धमनियों से ज्यादा दिमाग की नसों में फड़कता है.... #Repost #वर्णमाला #कविता ये पांच साल पुराना है. अज़ीब लगता है कि इन पांच सालों में मेरे लिखने, सोचने और महसूस करने में इतना फ़र्क कैसे आ गया है?