बचपन अलमस्त सा होता है, सुखी रोटी खा कर भी, दिल बलि्लयों उछलता रहता है, बचपन अलमस्त सा होता है। न समझ है दुनियादारी की, न भेद कोई बिरादरी की, हर पल खुश, हर पल उन्मुक्त, छोटी सी बात पर अति उत्सुक, बचपन अलमस्त सा होता है। कल क्यों न ऐसा भी दिन आए, हम सब यूँ बच्चे बन जाए। चहक सकें हर बात पर, मचल उठें हर पाथ पर, भूल के हर अहं, शिकवा, कुछ अलमस्त हम भी हो जाए। पग -पग पर जो कठिनाइयाँ है, उस पर कुछ मायुस तो हों, पर अगले ही क्षण, बच्चे सी, किलकारियां हम भी भर पाए, कुछ अलमस्त हम भी हो जाए। बच्चों को सिखाते रहते हैं, आज हम उनसे सीख जाए, क्यों न हम भी अलमस्त हो जाए। क्यों न हम भी अलमस्त हो जाए। #बचपन इस कविता का ऑॅडियो पहले से नोजोटो पे मौजूद है।