ज़ब पूर्ण यौवन भार से लदी वो सांध्य वेळा उत्तरी थी तट पर आनंदित हुआ था दर्द मेरा और न जाने क्यों मुझे वो मेरा सगा सहोदर सा लगने लगा था . मुझे आभास हो. रहा था जैसे मेरे दर्द की राख़ में दबी हुई चिंगारी में किसी ने आकर उनमे प्राण फूंक दीये हो फिर से शायद मैंने अपने अथक प्रयासो से उस तथाकथित दर्द के आनंद को. उपलब्ध करके. अपने उदास और उबाऊ जीवन कों बचा लिया था और महसूस किया क़ि दर्द के बिना आदमी कितना अकेला उदास और असहाय स्थिति मेंपहुंच जाता है ©Parasram Arora दर्द का आनंद......