सुन रही हो अमृता? मैं तुम्हारा साहिल नहीं, सिर्फ नाम का पति भी नहीं हूँ। तुम्हारी कलम ने आंसुओं के समंदर दिखाए, ग़मो के बादल बरसाए। अपनी अधीर वांछना के लिए तुम्हारी उंगलियां टटोलती रहीं साकार प्रेम। तुम्हारा मन कभी भी अभीप्सित न पा सका। अमृता! पता है क्यों? क्योंकि तुमने नहीं समझा समर्पण का अर्थ, नहीं जानी मूक वेदना, क्योंकि सूरज पास होकर भी तुम ढूढती रही जुगनू। सुन रही हो ना अमृता? क्योंकि गंगा पास होकर भी तुम्हें मदमस्त,अल्हड़ नालों से लगाव रहा। अमृता! मैं तो तुम्हारा इमरोज़ हूँ! हाँ-हाँ वही इमरोज़, जिसने पानी से गलना,धूप से जलना, कुचमुच दर्द से मरना स्वीकारा, मगर,किसी भी सूरत पर अलग-अलग आईने,रास्ते और चमकीले चेहरे नहीं ढूंढे, तुम्हारे इतने पास होकर भी मैं आकाश भर दूर रहा, अमृता! तुम अलग-अलग पगडंडियों, मंज़िलों को निहारती रही, मुझे देखो अमृता! मेरे लिए साध्य और साधन बस तुम ही थीं, तुम्हारा हृदय विशाल और सर्वसुलभ था, मग़र,मेरे मन,हृदय का रास्ता और मंज़िल केवल तुम ही थीं। सुन रही हो अमृता? ©mani naman #AmritaPritam #अमृताप्रीतम