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छुप रही धरती गगन से झांकता इक चाँद है इस

    छुप रही धरती गगन से झांकता इक चाँद है
     इस जहाँ में हर तरफ खामोशियों का राज है
           आँख मे आशू भरे हैं हम अकेले रो रहे
           गोद मे न जाने कितने लोग बेसुध सो रहे
    हर कोई ओढ़े रजाई ठंड से हम काँपते
     काश हम इंसान होते आग हम भी तापते
           तेज बर्फीली हवा से हिल गई बुनियाद है
     रात कट जाए अगर तो धुप हम भी सेंक लें
     दरम्यां अपने जहाँ को खिलखिलाते देख लें
         हौशले की मेरी कोई भी न देता दाद है

©Sunil Kumar Maurya Bekhud
  # काँपती इमारतें# हिन्दी# कविता

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