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चीर रहे थे सीना, चीख रही थी धरती।। खुद रही थी कब्र

चीर रहे थे सीना,
चीख रही थी धरती।।
खुद रही थी कब्रे,
प्रकृति के ठेकेदारों की,
भर रही थी जेबे।।
निजी स्वार्थ कुछ का,
नुकसान झेल रहे थे सब।।
चीर रहे थे सीना,
रो रहे थे पहाड़।।

✍️ दीपांकर डुकलान #पहाड
चीर रहे थे सीना,
चीख रही थी धरती।।
खुद रही थी कब्रे,
प्रकृति के ठेकेदारों की,
भर रही थी जेबे।।
निजी स्वार्थ कुछ का,
नुकसान झेल रहे थे सब।।
चीर रहे थे सीना,
रो रहे थे पहाड़।।

✍️ दीपांकर डुकलान #पहाड