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ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं। ज़िन्दगी अपने करीब इधर

ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं।

ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं।
इसके भी नाम एक पहर करते हैं।

रहे उलझे खोने पाने की जुगत में,
चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं।

शिशु बन फिर सोएं ममता गोद मे,
ममता से फिर खुद को तर करते हैं।

वो बालपन की क्रीड़ा कौतूहल भरी,
फिर से वो अल्हड़ता बसर करते हैं।

रवानी लिए थी जो आयी जवानी,
ले रेती नुकीला अपना शर करते हैं।

प्रौढ़ तो हो गया स्वर्णयुग था बीता,
उस युग अपना फिर से घर करते हैं।

कई सवाल उलझे से लगते हैँ जो,
आओ खुद से भी हम समर करते हैं।

अमृत घट की तलाश जो रही उम्र भर,
नहीं मंथन कभी कोई हम मगर करते हैं।

ये अनुभव दे भी जाती है सीख कई,
शाम को भी हो रौशन सहर करते हैं।

था घरौंदा जो बनाया कभी रेत पर,
ज़मींदोज़ उसे ही तो ये लहर करते हैं।

ईंट और रोड़ी लिए घूमता ही बस रहा,
एक आशियाँ इसकी भी नज़र करते हैं।

हम रहे भागते बेसुद्ध और बदहवास,
चलो ये काम अब थोड़ा ठहर करते हैं।

मनुज हैं मनुज बन महकें इस चमन में,
हम चलो फूलों संग अब सफर करते हैं।

कहाँ को हम चले थे, आ पहुंचे कहाँ हम,
चलो सीधी अब अपनी ये डगर करते हैं।

जो रोग पाला था हमने, महामारी हुई,
इनपे दवा बन चलो अब असर करते हैं।

©रजनीश "स्वछंद" ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं।

ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं।
इसके भी नाम एक पहर करते हैं।

रहे उलझे खोने पाने की जुगत में,
चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं।
ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं।

ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं।
इसके भी नाम एक पहर करते हैं।

रहे उलझे खोने पाने की जुगत में,
चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं।

शिशु बन फिर सोएं ममता गोद मे,
ममता से फिर खुद को तर करते हैं।

वो बालपन की क्रीड़ा कौतूहल भरी,
फिर से वो अल्हड़ता बसर करते हैं।

रवानी लिए थी जो आयी जवानी,
ले रेती नुकीला अपना शर करते हैं।

प्रौढ़ तो हो गया स्वर्णयुग था बीता,
उस युग अपना फिर से घर करते हैं।

कई सवाल उलझे से लगते हैँ जो,
आओ खुद से भी हम समर करते हैं।

अमृत घट की तलाश जो रही उम्र भर,
नहीं मंथन कभी कोई हम मगर करते हैं।

ये अनुभव दे भी जाती है सीख कई,
शाम को भी हो रौशन सहर करते हैं।

था घरौंदा जो बनाया कभी रेत पर,
ज़मींदोज़ उसे ही तो ये लहर करते हैं।

ईंट और रोड़ी लिए घूमता ही बस रहा,
एक आशियाँ इसकी भी नज़र करते हैं।

हम रहे भागते बेसुद्ध और बदहवास,
चलो ये काम अब थोड़ा ठहर करते हैं।

मनुज हैं मनुज बन महकें इस चमन में,
हम चलो फूलों संग अब सफर करते हैं।

कहाँ को हम चले थे, आ पहुंचे कहाँ हम,
चलो सीधी अब अपनी ये डगर करते हैं।

जो रोग पाला था हमने, महामारी हुई,
इनपे दवा बन चलो अब असर करते हैं।

©रजनीश "स्वछंद" ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं।

ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं।
इसके भी नाम एक पहर करते हैं।

रहे उलझे खोने पाने की जुगत में,
चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं।

ज़िन्दगी के पन्ने पलटते हैं। ज़िन्दगी अपने करीब इधर करते हैं। इसके भी नाम एक पहर करते हैं। रहे उलझे खोने पाने की जुगत में, चलो आज इससे कुछ इतर करते हैं। #Poetry #Life #kavita