सुलग-सुलग कर धुआँ उड़ रहा था, पता नहीं उसमें कितने अरमानों का गला दबा रखा था,, छल-कपट कहूँ या धोखा ? जो मेरी ही पीठ-पीछे मेरे ही प्यार, विश्वास को हर-वक्त दम भरकर उड़ा रहें थे,.... वो मेरी मासूमियत से भरे प्रेम को, अपने ही झूठ के पर्दें से ढ़क रहें थे | और हम उन पर! आँख मुँदकर विश्वास करते जा रहे थे... जो मुझे मेरे ही प्यार, विश्वास से दूर कर रहा था | गीता शर्मा प्रणय धीआ: