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सुलग-सुलग कर धुआँ उड़ रहा था, पता नहीं उसमें कितन

सुलग-सुलग कर धुआँ उड़ रहा था, 
पता नहीं उसमें कितने अरमानों
का गला दबा रखा था,, 
छल-कपट कहूँ या धोखा ?
जो मेरी ही पीठ-पीछे  
मेरे ही प्यार, विश्वास को 
हर-वक्त दम भरकर उड़ा रहें थे,....
वो मेरी मासूमियत से भरे
प्रेम को, अपने ही झूठ के
पर्दें से ढ़क रहें थे |
और हम उन पर! आँख 
मुँदकर विश्वास करते जा रहे थे... 
जो मुझे मेरे ही प्यार, विश्वास से
दूर कर रहा था |
              गीता शर्मा प्रणय धीआ:
सुलग-सुलग कर धुआँ उड़ रहा था, 
पता नहीं उसमें कितने अरमानों
का गला दबा रखा था,, 
छल-कपट कहूँ या धोखा ?
जो मेरी ही पीठ-पीछे  
मेरे ही प्यार, विश्वास को 
हर-वक्त दम भरकर उड़ा रहें थे,....
वो मेरी मासूमियत से भरे
प्रेम को, अपने ही झूठ के
पर्दें से ढ़क रहें थे |
और हम उन पर! आँख 
मुँदकर विश्वास करते जा रहे थे... 
जो मुझे मेरे ही प्यार, विश्वास से
दूर कर रहा था |
              गीता शर्मा प्रणय धीआ:

धीआ: