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#तीन_कुण्डलिया_छंद (1) जाने बिनु सब लिख रहे,कुण्डल

#तीन_कुण्डलिया_छंद
(1)
जाने बिनु सब लिख रहे,कुण्डलिया को मीत।
मात्रा ही सब कुछ नहीं,लय से भी हो प्रीत।
लय से भी हो प्रीत,बिठाने शब्द कहाँ पर।
तुक भिड़ाउ संगीत,न प्रिय! इसको समझा कर।।
कह सतीश कविराय,बात कोई नइँ माने।
कुण्डलिया को मीत,रहे लिख सब बिनु जाने।।
(2)
कहते हैं क्यों कुण्डली,कुण्डलिया को आप।
जो इक मधुरिम छंद है,नहीं बिगाड़ें छाप।।
नहीं बिगाड़ें छाप,उसे ख़ुद-सा रहने दें।
जैसे उठते भाव,उन्हें वैसे बहने दें।।
कह सतीश कविराय,लोभ में क्योंकर नहते।
कुण्डलिया को आप,कुण्डली क्यों हैं कहते।।
(3)
होवे गुरु-गुरु अंत में,या फिर हों लघु चार।
या लघु-लघु-गुरु लीजिए,इक गुरु-दो लघु भार।।
इक गुरु-दो लघु भार,रमे दोहा अरु रोला।
कहते यूँ विद्वान,सिर्फ़ यह मैं नहिं बोला।।
कह सतीश कविराय,न कुछ भी कह मुँह धोवे।
ठीक-ठीक पहचान,सहज कुण्डलिया होवे।

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद

#bestfrnds
#तीन_कुण्डलिया_छंद
(1)
जाने बिनु सब लिख रहे,कुण्डलिया को मीत।
मात्रा ही सब कुछ नहीं,लय से भी हो प्रीत।
लय से भी हो प्रीत,बिठाने शब्द कहाँ पर।
तुक भिड़ाउ संगीत,न प्रिय! इसको समझा कर।।
कह सतीश कविराय,बात कोई नइँ माने।
कुण्डलिया को मीत,रहे लिख सब बिनु जाने।।
(2)
कहते हैं क्यों कुण्डली,कुण्डलिया को आप।
जो इक मधुरिम छंद है,नहीं बिगाड़ें छाप।।
नहीं बिगाड़ें छाप,उसे ख़ुद-सा रहने दें।
जैसे उठते भाव,उन्हें वैसे बहने दें।।
कह सतीश कविराय,लोभ में क्योंकर नहते।
कुण्डलिया को आप,कुण्डली क्यों हैं कहते।।
(3)
होवे गुरु-गुरु अंत में,या फिर हों लघु चार।
या लघु-लघु-गुरु लीजिए,इक गुरु-दो लघु भार।।
इक गुरु-दो लघु भार,रमे दोहा अरु रोला।
कहते यूँ विद्वान,सिर्फ़ यह मैं नहिं बोला।।
कह सतीश कविराय,न कुछ भी कह मुँह धोवे।
ठीक-ठीक पहचान,सहज कुण्डलिया होवे।

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद

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