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सतीश तिवारी 'सरस'

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सतीश तिवारी 'सरस'

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सतीश तिवारी 'सरस'

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सतीश तिवारी 'सरस'

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सतीश तिवारी 'सरस'

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सतीश तिवारी 'सरस'

तीन कुण्डलिया छंद

(1)
होली की शुभकामना,कर लीजे स्वीकार।
नफ़रत का हो ख़ात्मा,जागे उर में प्यार।।
जागे उर में प्यार,हार खाये दुर्बलता।
सुख का हो उजियार,रहे दुख निज कर मलता।।
कह सतीश कविराय,बोलिये मीठी बोली।
सभी रहें खुशहाल,मने कुछ ऐसी होली।।
(2)
होली हम इस वर्ष की,कैसे खेलें मीत।
साथ नहीं अपने अभी,दिखे नदारद प्रीत।।
दिखे नदारद प्रीत,गीत उर में क्या आये।
होली की हुड़दंग,हमें बिल्कुल नहिं भाये।
कह सतीश कविराय,नहीं सँग में हमजोली।
ऐसे में क्या मीत,कहो हम खेलें होली।।
(3)
रेवा तट पर जा बसें,मन में उठती चाह।
काश! हमें दिल की नयी,मिले मधुरतम राह।।
मिले मधुरतम राह,तभी पावन हो होली।
रेवा तट पर धूम,मचाये मन की टोली।।
कह सतीश कविराय,ईश की हो कुछ सेवा।
जीवन हो ख़ुशहाल,कृपारत हो माँ रेवा।।

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद

सतीश तिवारी 'सरस'

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*तीन कुण्डलिया छंद*

(1)
कविता कविता ही रहे,करिये क़ोशिश मीत।
बने तमाशा वह नहीं,रखे भाव से प्रीत।।
रखे भाव से प्रीत,शब्द भी हों कुछ ऐसे।
होवे यही प्रतीत,पिरोये मोती जैसे।।
कह सतीश कविराय,उजाला दे ज्यों सविता।
फैलाये आलोक,लिखें कुछ ऐसी कविता।।
(2)
लिखना ही सब कुछ नहीं,पढ़ना भी अनिवार्य।
रहे उम्रभर सीखना,चाहे हों आचार्य।।
चाहे हों आचार्य,सीखना रखते जारी।
नहीं तमाशा काव्य,रखे चिंतन से यारी।।
कह सतीश कविराय,न चाहें केवल दिखना।
स्वीकारें निज भूल,तभी कुछ आये लिखना।।
(3)
कविताई के काम को,समझ न लेना खेल।
सखी है जो अभ्यास की,कहें न रेलम-पेल।।
कहें न रेलम-पेल,तमाशा इसे न जानें।
रचना कविता रोज़,यही बस मन में ठानें।।
कह सतीश कविराय,रोज़ कुछ लिखिए भाई।
लिखते-लिखते रोज़,सधेगी ख़ुद कविताई।

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद

सतीश तिवारी 'सरस'

जो मन से लाचार हैं,लिख नइँ सकते गीत.
लिखने के हित चाहिये,सद्भावों से प्रीत.
सद्भावों से प्रीत,साथ में बल समता का.
भूल घृणा का भाव,चाहिये सँग ममता का.
कह सतीश कविराय,गूढ़ रिश्ता जीवन से.
लिख सकता वह गीत,सबल होवे जो मन से.
*सतीश तिवारी 'सरस'

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद

सतीश तिवारी 'सरस'

तीन कुण्डलिया छंद
(1)
सूर्यदेव का बन्धुवर,दिवस आज रविवार।
सकल जगत् में बाँटते,जो अपना उजियार।।
जो अपना उजियार,बाँटते बिना भेद के।
मन में अपने भाव,न रखते कभी खेद के।।
कह सतीश कविराय,साथ पाते त्रिदेव का।
दिवस आज रविवार,बन्धुवर सूर्यदेव का।।
(2)
जीना कविता को सरस,सहज नहीं है मीत।
करनी पड़ती है हमें,कष्टों से भी प्रीत।।
कष्टों से भी प्रीत,जीत तब ही मिल पाती।
तभी निकल ख़ुद यार,हृदय से कविता गाती।।
कह सतीश कविराय,होय ख़ुद छलनी सीना। 
सहने पड़ते कष्ट,तभी आ पाये जीना।।
(3)
अहंकार की घोषणा,करना नहीं सतीश।
तुझमें कुछ तेरा नहीं,कहे हृदय का ईश।।
कहे हृदय का ईश,शारदे मातु साथ में।
लिखवाती सायास,थमाकर क़लम हाथ में।।
कह सतीश कविराय,निभा तू रीत प्यार की।
करना नहीं सतीश,घोषणा अहंकार की।।
*सतीश तिवारी 'सरस',नरसिंहपुर (म.प्र)

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद 

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सतीश तिवारी 'सरस'

#तीन_कुण्डलिया_छंद
(1)
जाने बिनु सब लिख रहे,कुण्डलिया को मीत।
मात्रा ही सब कुछ नहीं,लय से भी हो प्रीत।
लय से भी हो प्रीत,बिठाने शब्द कहाँ पर।
तुक भिड़ाउ संगीत,न प्रिय! इसको समझा कर।।
कह सतीश कविराय,बात कोई नइँ माने।
कुण्डलिया को मीत,रहे लिख सब बिनु जाने।।
(2)
कहते हैं क्यों कुण्डली,कुण्डलिया को आप।
जो इक मधुरिम छंद है,नहीं बिगाड़ें छाप।।
नहीं बिगाड़ें छाप,उसे ख़ुद-सा रहने दें।
जैसे उठते भाव,उन्हें वैसे बहने दें।।
कह सतीश कविराय,लोभ में क्योंकर नहते।
कुण्डलिया को आप,कुण्डली क्यों हैं कहते।।
(3)
होवे गुरु-गुरु अंत में,या फिर हों लघु चार।
या लघु-लघु-गुरु लीजिए,इक गुरु-दो लघु भार।।
इक गुरु-दो लघु भार,रमे दोहा अरु रोला।
कहते यूँ विद्वान,सिर्फ़ यह मैं नहिं बोला।।
कह सतीश कविराय,न कुछ भी कह मुँह धोवे।
ठीक-ठीक पहचान,सहज कुण्डलिया होवे।

©सतीश तिवारी 'सरस' #कुण्डलिया_छंद

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