खोए खोए सपनो में ढूंढता हूं अंधेरा रात क्यों अधीर है आता नहीं सबेरा महफिल की नई यात्रा में अब तो शोर का नाम गूंज रहा है बखेरा तपती दुपहरी में प्यास की पंचायत लगी सेहरा में पानी क्यूं नहीं डालती है डेरा आंगन की सोच से हम परे हैं कहां पुरानी खिलौनों का नहीं है बसेरा चहक उठती थी रगों में जो लहू शांत शांत है अब किसका पहरा डर की साया छांव में लेटी है क्यों मन की तृष्णा सोई है शायद गहरा दो बूंद साकी पिलादे शराब मुझे जेहन को सुलगानी है गम जो ठहरा। ©Rishi Ranjan #sadak #Life #poem