अमरता भी आज नश्वरता की गलियों मे भटक रही हैँ शाश्वत की अमरबेल जो घर घर उगी थी आज वो भी सड़ने लगी हैँ मरघट मे पुरषार्थ की अर्थी जल रही हैँ बासंती चमन मे क्यों फिर से आज मरुस्थलीय पतझर की घुसपेठ हो रही हैँ जिस दिन से जन्मा हैँ आदमी उसी दिन से मरने की तैयारी चल रही हैँ ये सजी संवरी सी शृंगारित कब्रे बाहे पसारे आलिंगन का आवाहन कर रही हैँ नश्वरता की गलिया........