बादलों देख लिया तेरी तानाशाही को क्यों मेरी आँख से तूने नमी ये जोड़ी है तुमको पाना लगा गुनाह पे गुनाह सो हक़ की अपनी मैने सारी आस छोड़ी है सच कभी टिक नही पाया अंदर झूठ ने रूह की इंसानियत मरोड़ी है पी गया सब्र को इतना था पागल बेवजह किसने यहां दुनियादारी छोड़ी है चढ़ गया था जिसे कागज का नशा मह की बोतल उसी ने आज यहां फोड़ी है ज़िन्दगी ज़ी रहा हैं 'शुभ' देखो मरना जीना भी कोई आम बात थोड़ी है - Navdeep Panchal 'Shubh'