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कागज़ी दुनिया।। कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में

कागज़ी दुनिया।।

कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ,
बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ।

कभी बारिश कभी ये धूप,
कभी जलता कभी गलता।
समय के जो थपेड़े थे,
लगा दीमक कभी झरता।

कलम की नीब से डरकर,
जो कोरा आज दिखता हूँ।
न कोई राह न मंज़िल,
कोरा ही आज बिकता हूँ।

डरा मैं आग पानी से,
रहा बन्द भी तिजोरी में।
बदलते हाथ थे रहते,
रहा बंटता बटोही में।

कलम से थी मेरी यारी,
स्याही छींट कर रोया।
जो मुझपे नीब टूटी थी,
वो माथा पीट कर रोया।

कभी माशूक और आशिक़,
मैं सीने से लगा रहता।
कभी बोतल का लेबल में,
वो पीने में लगा रहता।

कोई मंत्री कोई नेता,
मुझे है देखकर पढ़ता।
लक्ष्मी की रही दुनिया,
वो पैसे फेंककर बढ़ता।

वो रस्ते का भिखारी भी,
मुझे थाली समझ जाता।
लिखीं थीं हक की बातें,
मुझे गाली समझ जाता।

कहाँ मैँ सत्य भी लिखता,
कलम दरबारी बन बैठी।
पुलिंदा झूठ का था मैं,
मुहर सरकारी बन बैठी।

बच्चे खेलते मुझसे,
कभी कश्ती कभी था प्लेन।
उड़ जाउँ आसमां में मैं,
बनाता एक नया सा गेम।

वेदों की कथा मुझमे,
गीता और पुराण मुझमे।
मज़हब एक था मेरा,
गुरवाणी और कुरान मुझमे।

पढ़ा किसने मुझे कब था,
दिखावे की रही दुनिया।
पड़ा निःशब्द बैठा हूँ,
छलावे की रही दुनिया।

कोई हंसता मुझे पढ़ कर,
कोई रोता मुझे पढ़कर।
किसी का हक कोई लूटे,
सीने पर मेरे चढ़कर।

कथा इतनी वृहद है कि,
सुनाता मैं चला जाऊं।
पली है स्वार्थ में दुनिया,
भुलाता मैं चला जाऊं।

कभी आऊंगा मैं कह दूं,
किस्सा एक नया लेकर।
दीमक झाड़कर अपने,
हिस्सा एक नया लेकर।

बचाने आग से तुमको, नहीं कागज़, मैं चिमटा हूँ।
कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" कागज़ी दुनिया।।

कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ,
बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ।

कभी बारिश कभी ये धूप,
कभी जलता कभी गलता।
समय के जो थपेड़े थे,
कागज़ी दुनिया।।

कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ,
बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ।

कभी बारिश कभी ये धूप,
कभी जलता कभी गलता।
समय के जो थपेड़े थे,
लगा दीमक कभी झरता।

कलम की नीब से डरकर,
जो कोरा आज दिखता हूँ।
न कोई राह न मंज़िल,
कोरा ही आज बिकता हूँ।

डरा मैं आग पानी से,
रहा बन्द भी तिजोरी में।
बदलते हाथ थे रहते,
रहा बंटता बटोही में।

कलम से थी मेरी यारी,
स्याही छींट कर रोया।
जो मुझपे नीब टूटी थी,
वो माथा पीट कर रोया।

कभी माशूक और आशिक़,
मैं सीने से लगा रहता।
कभी बोतल का लेबल में,
वो पीने में लगा रहता।

कोई मंत्री कोई नेता,
मुझे है देखकर पढ़ता।
लक्ष्मी की रही दुनिया,
वो पैसे फेंककर बढ़ता।

वो रस्ते का भिखारी भी,
मुझे थाली समझ जाता।
लिखीं थीं हक की बातें,
मुझे गाली समझ जाता।

कहाँ मैँ सत्य भी लिखता,
कलम दरबारी बन बैठी।
पुलिंदा झूठ का था मैं,
मुहर सरकारी बन बैठी।

बच्चे खेलते मुझसे,
कभी कश्ती कभी था प्लेन।
उड़ जाउँ आसमां में मैं,
बनाता एक नया सा गेम।

वेदों की कथा मुझमे,
गीता और पुराण मुझमे।
मज़हब एक था मेरा,
गुरवाणी और कुरान मुझमे।

पढ़ा किसने मुझे कब था,
दिखावे की रही दुनिया।
पड़ा निःशब्द बैठा हूँ,
छलावे की रही दुनिया।

कोई हंसता मुझे पढ़ कर,
कोई रोता मुझे पढ़कर।
किसी का हक कोई लूटे,
सीने पर मेरे चढ़कर।

कथा इतनी वृहद है कि,
सुनाता मैं चला जाऊं।
पली है स्वार्थ में दुनिया,
भुलाता मैं चला जाऊं।

कभी आऊंगा मैं कह दूं,
किस्सा एक नया लेकर।
दीमक झाड़कर अपने,
हिस्सा एक नया लेकर।

बचाने आग से तुमको, नहीं कागज़, मैं चिमटा हूँ।
कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ।

©रजनीश "स्वछंद" कागज़ी दुनिया।।

कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ,
बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ।

कभी बारिश कभी ये धूप,
कभी जलता कभी गलता।
समय के जो थपेड़े थे,

कागज़ी दुनिया।। कागजों की दुनिया है, मैँ कागज़ में ही सिमटा हूँ, बस एक पन्ने में अक्षर थे, मैँ उनमे ही लिपटा हूँ। कभी बारिश कभी ये धूप, कभी जलता कभी गलता। समय के जो थपेड़े थे, #Poetry #kavita #tourdelhi