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इश्क तिजारत रुह की है लोग ज़िस्मों पर दांव लगा बैठ

इश्क तिजारत रुह की है
लोग ज़िस्मों पर दांव लगा बैठे।
मग़रुर ख़्वाब-ए-आफताब कोई
चराग़-ओ-शफ़क गंवा बैठे।।

ज़िस्म-ए-महताब  देख कोई
दिल-ए-महताब गंवा बैठे।
आरज़ू , बस चार आना रही होगी
वसवसा ईमान-ए-लाख लुटा बैठे।।

कालिख़ पोत रखी दरम्यान
नज़रों पर कमान चढ़ा बैठे।
वहसीयत कौंध रही भीतर
चेहरे पर मुस्कान सज़ा बैठे।।

मोहब्बत-दिल्लगी, मुख़्तलिफ़ चीजें हैं
क्यूं अपना अमन-ओ-चैन गंवा बैठे।
मुसाफ़िर हो, अपनी डगर चलो
क्यों राहों से राहें उलझा बैठे।।

"किशोरी लाल" #नज्म़
इश्क तिजारत रुह की है
लोग ज़िस्मों पर दांव लगा बैठे।
मग़रुर ख़्वाब-ए-आफताब कोई
चराग़-ओ-शफ़क गंवा बैठे।।

ज़िस्म-ए-महताब  देख कोई
दिल-ए-महताब गंवा बैठे।
आरज़ू , बस चार आना रही होगी
वसवसा ईमान-ए-लाख लुटा बैठे।।

कालिख़ पोत रखी दरम्यान
नज़रों पर कमान चढ़ा बैठे।
वहसीयत कौंध रही भीतर
चेहरे पर मुस्कान सज़ा बैठे।।

मोहब्बत-दिल्लगी, मुख़्तलिफ़ चीजें हैं
क्यूं अपना अमन-ओ-चैन गंवा बैठे।
मुसाफ़िर हो, अपनी डगर चलो
क्यों राहों से राहें उलझा बैठे।।

"किशोरी लाल" #नज्म़