इश्क तिजारत रुह की है लोग ज़िस्मों पर दांव लगा बैठे। मग़रुर ख़्वाब-ए-आफताब कोई चराग़-ओ-शफ़क गंवा बैठे।। ज़िस्म-ए-महताब देख कोई दिल-ए-महताब गंवा बैठे। आरज़ू , बस चार आना रही होगी वसवसा ईमान-ए-लाख लुटा बैठे।। कालिख़ पोत रखी दरम्यान नज़रों पर कमान चढ़ा बैठे। वहसीयत कौंध रही भीतर चेहरे पर मुस्कान सज़ा बैठे।। मोहब्बत-दिल्लगी, मुख़्तलिफ़ चीजें हैं क्यूं अपना अमन-ओ-चैन गंवा बैठे। मुसाफ़िर हो, अपनी डगर चलो क्यों राहों से राहें उलझा बैठे।। "किशोरी लाल" #नज्म़