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"मेरी डिबिया की रौशनी"/विक्रम अगस्त्य #बचपन " प

"मेरी डिबिया की रौशनी"/विक्रम अगस्त्य
#बचपन
   " पुस कि रात और मेरी डिबिया की रौशनी"
                                 [ विक्रम अगस्त्य]
बेहद ठंड होती हैं, पुस की रात.....
   वो दौर था उस वक्त का जब हमारे गांव में बिजली नहीं हुआ करता था। डिबिया के रौशनी में पढ़ा करते थे। यकीन मानिए दोस्तों वो दौर ही इतना मनमोहक था। शाम होते ही फिर वहीं छोटीसी प्यारी डिबिया के पास बैठ कर " हल्कू और सिरचन के कहानियां पढ़़ा करते थे। 
मेरी माँ हमेशा सब घरेलू काम निपटा कर बैठ जाती थी, मेरे पास , जब मैं पढ़ते पढ़ते सो जाता तब मेरी माँ मुझे नींद मैं ही अगसर खाना खिला देती थी। गोद में उठा कर 
   बिस्तर पे सुला देती थी। फिर वो मेरी बुक्स को उस जगह रख देती थी। जहाँ उसे होना चाहिए था। मेरे पिता एक चिकित्सक थे, वो हमेशा घर देररात लौटा करते थे। लेकिन जैसे ही सबेरा होता, पिताजी कमरे में दाखिल होते ही, पुरें बदन को दबा देते थे। अंगड़ाइयां लेते हुए,मैं उठ बैठता था। फिर पिताजी अपने कंधों पर लेकर चापाकल तक छोड़ते थे। नित्यक्रिया संपन्न होने के बाद सभी भाई-बहन इकट्ठा हो कर सुबह का नाश्ता करते और एक-दूसरे का टांग खिचाई करते।

"मेरी डिबिया की रौशनी"/विक्रम अगस्त्य #बचपन " पुस कि रात और मेरी डिबिया की रौशनी" [ विक्रम अगस्त्य] बेहद ठंड होती हैं, पुस की रात..... वो दौर था उस वक्त का जब हमारे गांव में बिजली नहीं हुआ करता था। डिबिया के रौशनी में पढ़ा करते थे। यकीन मानिए दोस्तों वो दौर ही इतना मनमोहक था। शाम होते ही फिर वहीं छोटीसी प्यारी डिबिया के पास बैठ कर " हल्कू और सिरचन के कहानियां पढ़़ा करते थे। मेरी माँ हमेशा सब घरेलू काम निपटा कर बैठ जाती थी, मेरे पास , जब मैं पढ़ते पढ़ते सो जाता तब मेरी माँ मुझे नींद मैं ही अगसर खाना खिला देती थी। गोद में उठा कर बिस्तर पे सुला देती थी। फिर वो मेरी बुक्स को उस जगह रख देती थी। जहाँ उसे होना चाहिए था। मेरे पिता एक चिकित्सक थे, वो हमेशा घर देररात लौटा करते थे। लेकिन जैसे ही सबेरा होता, पिताजी कमरे में दाखिल होते ही, पुरें बदन को दबा देते थे। अंगड़ाइयां लेते हुए,मैं उठ बैठता था। फिर पिताजी अपने कंधों पर लेकर चापाकल तक छोड़ते थे। नित्यक्रिया संपन्न होने के बाद सभी भाई-बहन इकट्ठा हो कर सुबह का नाश्ता करते और एक-दूसरे का टांग खिचाई करते।

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