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बैठे-बैठे आज अचानक चला गया उन स्मृतियों में। चहक र

बैठे-बैठे आज अचानक चला गया उन स्मृतियों में।
चहक रहे थे जहां हमारे दिन बचपन की गलियों में।।

नन्हें-नन्हें पांवों से जब साथ-साथ हम चलते थे।
राम-लखन की जोड़ी हमको तब पापा जी कहते थे।।

एक भाई थे गोलू-मोलू एक ज़रा सा दुबले थे।
लोगों को हम लॉरेल-हार्डी की जोड़ी से लगते थे।।

टिन का डब्बा बांध गले में भाई एक बजाता था।
कमर हिला कर दूजा भाई नाचता, मन बहलाता था।।

बालमंडली के संग दिन भर घूमते मौज मनाते थे।
यारों के संग रोटी बिस्कुट खाते और खिलाते थे।।

जेब में कंचे रंग-बिरंगे भरकर घूमा करते थे।
साथ घुमाते टायर दोनों, पतंग लूटते फिरते थे।।

बिना बताए घर से जाते सांझ ढले घर आते थे।
हाथ पांव कीचड़ में सना कर मां से पिटाई खाते थे।।

"पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस" कह कर पापा डांटें जब।
देख किताबें नींद सताए पढ़ने हमें बिठाएं जब।।

खेल खेलते, लड़ते झगड़ते क्या-क्या करते थे हम-तुम।
जो भी करते साथ-साथ ही सब-कुछ करते थे हम-तुम।।

आपस में ही एक-दूजे से प्रतिद्वंद्विता रखते थे।
लेकिन हम-तुम एक दूजे से नहीं कभी भी जलते थे।।

पल में रूठें, पल में मानें, ऐसा अपना जीवन था।
दो तन और एक प्राण थे दोनों, निश्छल मन का बंधन था।।

आपस में कितना भी लड़ लें साथ नहीं पर तजते थे।
हम-दोनों पर आंख उठाने से दुश्मन भी डरते थे।।

जोड़ी अपनी जहां भी रही, किस्सों से भरपूर रही।
साथ, प्रेम और बात हमारी सदा जवां, मशहूर रही।

लेकिन वक्त ने करवट बदली दूर-दूर अब रहते हैं।
एक-दूसरे से बातें भी हम करने को तरसते हैं।।

गये सुनहरे बचपन के दिन और जवानी बीत रही।
हैं संबंध वही अपने पर धुंधली सी कुछ प्रीत रही।।

व्यस्त हो गए तुम जीवन में, मैं भी कुछ उलझन में रहा।
अपनी-अपनी परेशानियों से बंधा और घिरा रहा।।

हां... दुःख है; पहले सा जीवन में दोनों के कुछ न रहा।
लेकिन रहो जहां भी ख़ुश रहो करें यही दिन-रात दुआ।।

रिपुदमन झा "पिनाकी"

©रिपुदमन पिनाकी बैठे-बैठे आज अचानक चला गया उन स्मृतियों में।
चहक रहे थे जहां हमारे दिन बचपन की गलियों में।।

नन्हें-नन्हें पांवों से जब साथ-साथ हम चलते थे।
राम-लखन की जोड़ी हमको तब पापा जी कहते थे।।

एक भाई थे गोलू-मोलू एक ज़रा सा दुबले थे।
लोगों को हम लॉरेल-हार्डी की जोड़ी से लगते थे।।
बैठे-बैठे आज अचानक चला गया उन स्मृतियों में।
चहक रहे थे जहां हमारे दिन बचपन की गलियों में।।

नन्हें-नन्हें पांवों से जब साथ-साथ हम चलते थे।
राम-लखन की जोड़ी हमको तब पापा जी कहते थे।।

एक भाई थे गोलू-मोलू एक ज़रा सा दुबले थे।
लोगों को हम लॉरेल-हार्डी की जोड़ी से लगते थे।।

टिन का डब्बा बांध गले में भाई एक बजाता था।
कमर हिला कर दूजा भाई नाचता, मन बहलाता था।।

बालमंडली के संग दिन भर घूमते मौज मनाते थे।
यारों के संग रोटी बिस्कुट खाते और खिलाते थे।।

जेब में कंचे रंग-बिरंगे भरकर घूमा करते थे।
साथ घुमाते टायर दोनों, पतंग लूटते फिरते थे।।

बिना बताए घर से जाते सांझ ढले घर आते थे।
हाथ पांव कीचड़ में सना कर मां से पिटाई खाते थे।।

"पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस" कह कर पापा डांटें जब।
देख किताबें नींद सताए पढ़ने हमें बिठाएं जब।।

खेल खेलते, लड़ते झगड़ते क्या-क्या करते थे हम-तुम।
जो भी करते साथ-साथ ही सब-कुछ करते थे हम-तुम।।

आपस में ही एक-दूजे से प्रतिद्वंद्विता रखते थे।
लेकिन हम-तुम एक दूजे से नहीं कभी भी जलते थे।।

पल में रूठें, पल में मानें, ऐसा अपना जीवन था।
दो तन और एक प्राण थे दोनों, निश्छल मन का बंधन था।।

आपस में कितना भी लड़ लें साथ नहीं पर तजते थे।
हम-दोनों पर आंख उठाने से दुश्मन भी डरते थे।।

जोड़ी अपनी जहां भी रही, किस्सों से भरपूर रही।
साथ, प्रेम और बात हमारी सदा जवां, मशहूर रही।

लेकिन वक्त ने करवट बदली दूर-दूर अब रहते हैं।
एक-दूसरे से बातें भी हम करने को तरसते हैं।।

गये सुनहरे बचपन के दिन और जवानी बीत रही।
हैं संबंध वही अपने पर धुंधली सी कुछ प्रीत रही।।

व्यस्त हो गए तुम जीवन में, मैं भी कुछ उलझन में रहा।
अपनी-अपनी परेशानियों से बंधा और घिरा रहा।।

हां... दुःख है; पहले सा जीवन में दोनों के कुछ न रहा।
लेकिन रहो जहां भी ख़ुश रहो करें यही दिन-रात दुआ।।

रिपुदमन झा "पिनाकी"

©रिपुदमन पिनाकी बैठे-बैठे आज अचानक चला गया उन स्मृतियों में।
चहक रहे थे जहां हमारे दिन बचपन की गलियों में।।

नन्हें-नन्हें पांवों से जब साथ-साथ हम चलते थे।
राम-लखन की जोड़ी हमको तब पापा जी कहते थे।।

एक भाई थे गोलू-मोलू एक ज़रा सा दुबले थे।
लोगों को हम लॉरेल-हार्डी की जोड़ी से लगते थे।।