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बात रुक रुक कर बढ़ी फिर हिचकियों में आ गई, फ़ोन पर

बात रुक रुक कर बढ़ी फिर हिचकियों में आ गई,
फ़ोन पर जो हो न पाई वॉट्सएप में आ गई
एक सुबह दो ख़ामोशियों साथ चाय पी और,
अलविदा वाली घड़ी प्यालियों में आ गई
ट्रेन ओझल हो गई इक हाथ हिलता रह गया
कदम जम सा गया, मन बैठता रह गया,
उस विदाई के शाम आंसु सैलाब सा बहता रह गया।
वक़्त रुख़्सत की उदासी मेरे मन में आ गई,
अध लिखी रह गई वो चिट्ठी जो मेरे गोद में थी,
उठ के पन्नों से कहानी मेरे सिसकियों में आ गई
चार दिन होने को आए कॉल इक आया नहीं
चुप्पी मोबाइल की अब बेचैनियों में आ गई
बात जो है थक गई छत पर खड़ी जब दोपहर
शाम की चादर लपेटे खिड़कियों में आ गई
रात ने यादों की माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी उँगलियों में आ गयी।

©erakash21
  #alveeda