संथाल हूल खो गई है आदिवासियों की एकता,भूल गए हैं करना हूल, अपनी ही स्वर्णिम इतिहास से है अनजान, भूल जो गए है 1855 की संथाल हूल। यह है अमर कहानी, ऐसी जो ना दोबारा होनी, अनगिनत वीर, वीरगनाँए ऐसे जिसके नहीं कोई सानी, बचपन से ही आजादी के थी जो दीवाने, आजादी के असली मायने,उन्होंने ही तो थे जाने। बात है 1832 के दामिन-ए-कोह की, अपनी ही जमीन पर कर्ज चुकाने की, अंग्रेजों के अत्याचारों से होकर त्रस्त, थक हार के, हो गए थे सभी पस्त। सूझ नहीं रहा था किसी को भी हल, अपनी भूमि पर कर्ज देकर चलाते थे हल, भरकर पूरे जोश में, संथालों ने किया हूल, ठान लिया, एकत्र होकर सब ने बजाया बिगुल। सिद्धू,कान्हू, चाँद, भैरव, फूलो, झानो ने, उठाया बीड़ा, करने नेतृत्व सबलोगों का, 30 जून 1855, को संथालो ने भरा हुँकार, किया हूल, अंग्रेजों को भी लगा डर, हो गए वो भी गुल । थे नहीं हथियार, तीर- धनुष- भालों से किया सामना, गोलीबारी- तोप के सामने भी जान देने से ना किया मना, जानते थे कि मार दिए जाएंगे, फिर भी रहे डटे, आजाद भविष्य के लिए नहीं किया समझौता,पीछे ना हटे। दिया अपना प्राण- बलिदान, बना दिया खुद को ही नींव, बनाने आदिवासियों का आधार, आजाद भविष्य के जीव, बढ़ाया मान, बनाया कीर्तिमान आदिवासियों के नाम, मगर हम तो गए भूल,ना सीख पाए उनके मूल-मंत्र जो थे बड़े काम के। हमने सिर्फ बनवा दी चौक-चौराहे,उनके नाम की मूर्तियाँ, केवल करते है नाम के लिए याद,पहनाने के लिए माला, सिर्फ खानापूर्तियाँ, आखिर कब सीखेगें हम उनसे सामुदायिकता, जीने की कला, एकत्रित रहने का ढंग, प्रकृति से सामंजस्य की कला? हम कहते हैं खुद को आधुनिक, यथार्थ से बेखबर, वे (हमारे पूर्वज) तो थे गुणों के धनिक, खो गई है आदिवासियों की एकता,भूल गए हैं करना हूल, अपनी ही स्वर्णिम इतिहास से है अनजान, भूल जो गए है 1855 की संथाल हूल। ©Ben Beck #Santhalhul Celebrating 166th anniversary of Santhal Revolt