करते हैं एक ख़ून पसीना यहां सभी, जद्दोजहद दो जून की रोटी के लिए है। सहते हैं सितम झिड़कियाँ सुनते हैं सभी की, सब ज़िल्लतें दो जून की रोटी के लिए है। हर धूप-छाँव गर्मियांँ, बरसात, सर्दियाँ, सब झेलता दो जून की रोटी के लिए है। मीलों यहाँ वहाँ भटकना साँझ ढले तक, मुश्किल सफ़र दो जून की रोटी के लिए है। करता कभी फ़ाक़ाकशी पानी कभी पीकर, उम्मीद से दो जून की रोटी के लिए है। खोता कभी ख़ुद्दारी गंवाता कभी ग़ैरत, सब भूलता दो जून की रोटी के लिए है। मजबूर भी मज़बूत भी है आदमी सभी, लड़ता तभी दो जून की रोटी के लिए है। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©Ripudaman Jha Pinaki #दोजूनकीरोटी