मन को देखो टटोलकर।। जीवनकाल के उत्तरार्ध पर, मन को मैं हूँ टटोलता, ज्ञान भिक्षा जो मिली थी, मुख खोल मैं हूँ बोलता। दीर्घकालिक हूँ नहीं मैं, नश्वरता का कुल बोध है, अनुभवों की चाभी भर, बन डुगडुगी हूँ डोलता। ज्ञान का ये दायरा, ना सीमित ना संकुचित हुआ, वाणी को कर शिरोधार्य, ले ज्ञान-तराजू हूँ तोलता। विवेक पर कुमति थी भारी, उदंडता अमरत्व पर, विष मन्थित कंठ धारे, मैं निज को ही हूँ कोसता। सुचितोचित प्रश्नवाचक, चढ़ दुर्ग था ललकारता, विनिमयी इस मेले में, निज त्रास को हूँ मोलता। कंठाग्र जो थी संस्कृति, आंदोलित रही उदगार को, हो कुपित मनोभाव से, संग शुष्म रक्त हूँ खौलता। ह्रस्व था या दीर्घ था, मैं दिन था या दीन हुआ अब, आकंठ क्रंदन-स्वर में डूब, स्याही में नाद हूँ घोलता। ©रजनीश "स्वछंद" मन को देखो टटोलकर।। जीवनकाल के उत्तरार्ध पर, मन को मैं हूँ टटोलता, ज्ञान भिक्षा जो मिली थी, मुख खोल मैं हूँ बोलता। दीर्घकालिक हूँ नहीं मैं, नश्वरता का कुल बोध है, अनुभवों की चाभी भर, बन डुगडुगी हूँ डोलता।