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मरघट मैं जब भी गुजरता हूँ , किसी मरघट से होते हु

मरघट 

मैं जब भी गुजरता हूँ ,
किसी मरघट से होते हुए ।

मर जाता है मेरा ग़ुरूर ,
जाग जाता है ज़मीर मेरा, सोते हुए ।

मुझे मेरी औक़ात का पता चलता है ,
मैं भूल जाता हूँ मेरी जाति, मेरा मज़हब।

जब देख राख एक इंसान की ,
सोचता हूँ मैं भी यही हूँ , मर जाऊँगा जब ।

मैं हँसता हूँ ठहाके लगा कर ,
फिर हो शांत मैं चिंतित हो जाता हूँ ,

देखता हूँ आसमान की तरफ़ ,
न दुखाऊँ दिल किसी का , भोले से उम्मीद लगाता हूँ ।

हे मेरे महाकाल ,मुझ पर इतनी दया रखना ,
मैं आऊँ तुम्हारे पास इंसानियत के बीज बोते हुए ।

मैं जब भी गुजरता हूँ…

©Ravindra Singh
  मरघट 

मैं जब भी गुजरता हूँ ,
किसी मरघट से होते हुए ।

मर जाता है मेरा ग़ुरूर ,
जाग जाता है ज़मीर मेरा, सोते हुए ।

मरघट मैं जब भी गुजरता हूँ , किसी मरघट से होते हुए । मर जाता है मेरा ग़ुरूर , जाग जाता है ज़मीर मेरा, सोते हुए । #Poetry

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