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गुनेश्वर

मुझे भी अपना मान कर चलो ,मेरे बारे बस इतना जानकर चलो ।।

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गुनेश्वर

Dear Dreams  समय की धुप ने 
तुम्हे समेट लिया है 
विकल्प की वैतर्णि 
ढूंढ रहे लोग , 
क्या तुम पुरानी जिजीविषा 
लौटा पाओगे 
संभावनाओं की पगडंडी 
प्रयत्न की बाट जोहती है 
आद्र मत होना 
कोशिश कलरव करेगा ही 
खुद से बाहर आ जाना तुम

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गुनेश्वर

सौम्य धरा की करतल तुम        
मैं हूँ मनमौजी बंजारा  
तुम मोहित मन की अठखेली     
मैं तो डमरू का कंकड़ प्यारा  
तुम वीणा के धुन से श्रिंगारित  
मैं हूँ गूंजीत ईक भौरा प्यारा 
तुम हो सप्तपदी की आकांक्षा 
मैं सप्तपदी का श्लोक तुम्हारा 
तुम पवित्रता रामायण की     
मैं हूँ गर्वित कीर्तन प्यारा  
तुम कोकिला संस्कारों की 
मैं संस्कारों का सत्व तुम्हारा 
तुम सानिध्य का सरगम  
मैं अनगढ़ गीत तुम्हारा 
तुम नैतिकता मे नभ हो
मैं नभ से लिपटा रीत तुम्हारा 
तुम हो चितवन की चंचलता  
मैं इठलाता पाजेब तुम्हारा 
तुम ब्रह्मांड की उत्कृष्ट कृति 
मैं कृति से उपजा कलरव न्यारा
तुम हो नदी का कलकल 
मैं कलकल से उपजा भोर तुम्हारा 
------------------सौम्य धरा की करतल तुम        
------------------मैं तो हूँ मनमौजी बंजारा

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गुनेश्वर

मेरी नींदों मे तुम ख़ाब बनकर आती हो 
गुलाब मे लिपटी 
शबाब बनकर आती हो 

हमेशा मैं तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ 
अनपढ़ी सी इक 
किताब बनकर आती हो 

कोयल की मीठी कुहुक सी लगती हो तुम 
गीतों मे भावों का 
जवाब बनकर आती हो 

स्वर की शताब्दियाँ लगती हो निखरती हो 
सुर की गलियों मे 
रुआब बनकर आती हो

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गुनेश्वर

Dil Shayari  हाँ, 
तुम्ही ने जाना मुझे 
पलाश के रंग मे ढाला मुझे 
मै महावर हो गई सज गई  
मेरे एहसास के पन्नो मे 
सिंदूर के गीत लिखते हो तुम 

हाँ, 
मैं नटखट हो जाती हूँ 
ख्वाबों के द्वारे तुम्हें पाती हूँ 
अंगुलियों के पोरो से चाँद छु लेती हूँ 
पास ले मेरी अनामिका सहला देते हो तुम 

हाँ, 
मैं ठंड मे सिहरती हूँ जब जब 
छन्न से मेरी पायल बजा जाते हो तुम
मैं देखने लगती हूँ  पारदर्शी इक बिम्ब  
दर्पण पास खींच  लेता हैं मुझे 
और फिर तुम मुस्कुरा देते हो ,,,,,,
तुम सिप लगते हो मुझे आत्मसात करते 
गुनेश्वर अनकही

अनकही

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गुनेश्वर

J- कल मिल पाओगी 
कुछ वैचारिक सीपीयाँ
अब भी सन्दूक मे हैं 
तुम्हें अब लौटानी है||

मेरी पुलकन मे अब भी 
तुम्ही हो 
मेरी सोच की दीर्घा मे 
बस एक ही स्थान था 
और वो तुम्हारी हँसी
आस्था की दीवारों को 
पुलकित करती रहती हैं  

पर , एक सीमा रेखा 
उन्होने खींची 
जो हमारे होने के मायने हैं 
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा चर्च
सभी तो हैं वही 

और हम अलग हैं 

क्यों न सीपियों 
को वापस कर ले 
बस एहसास काफी है 
हमे हममे होने के लिए 

क्यों हैं न ,, कल मिलना जरूर गरिमामय प्रेम

गरिमामय प्रेम #poem

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गुनेश्वर

हाँ मैं रजस्वला हूँ 
स्त्री होने का सुख यह रज ही तो है 
तुम्हें आकार देकर सार्थक करने का 
दिव्य दायित्व मुझ पर है 
पर मुझे अपवित्र करार दिया गया
ऋषिपंचमी की कथा और कब तक बांचोगे ??? 
क्या तुम इस बात से डरते हो 
अगला जन्म बैल का न हो जाये 
अगर यही सोच है तो अब क्या हो ????
हाँ मैं रजस्वला हूँ 
गर्व है मुझे, 
पर तुम मेरे इस प्रेम के 
उन्माद को न समझ पाओगे 
और तुम पेड़ के सड़ जाने का ज्ञान बाँटते फिरो 
और बताओ की मैं अपवित्र हूँ 
अपवित्रता 2-3-4 दिनो मे सीमित कर 
फिर मुझे पवित्र कर देने की आत्म-संतुष्टि मे जियो
हाँ मैं रजस्वला हूँ 
और पुजा मेरे लिए वर्जित है 
इष्ट की मूर्ति भी नहीं छु सकती 
दूध मुहे बच्चे को दुग्ध पान तो करवाती हूँ 
फिर वह अपवित्र नहीं होता वह मुरझाता नहीं 
और बच्चे तो भगवान स्वरूप है ,,मुझे छूते है 
छाती से चिपके रहते हैं ,, उफ़्फ़... पर मैं अपवित्र हूँ 
हाँ मैं रजस्वला हूँ 
हाँ उस दौरान कुछ थकी रहती हूँ 
बुजुर्गो ने मेरे आराम के लिए 
निर्धारित किए थे वे दिन 
पर तुमने ????????????????
हाँ मैं रजस्वला हूँ 
तुम्हारी दमनवादी सोच की पक्षधर नहीं 
रूढ़िवादिता से रीढ़ कमजोर न होने दूँगी 
रजस्वला होती रहूँगी 
नैसर्गिक सुंदर बंधन को नहीं त्यागती 
पाखंडों का गुणगान मुझसे न होगा 
क्षमा करना 
कभी आओ 
सार्थक्ता के नीड़ के नीचे 
सच को स्वीकारें निर्विवाद 
दमनकारी सोच को पीछे छोडते हाँ मै रजस्वला हूँ

हाँ मै रजस्वला हूँ #poem

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गुनेश्वर

तुम कैसे बुनोगी 
महीन शब्दों का जाल 
तुम कर्तव्यनिष्ठा की 
जिजीविषा से ओतप्रोत हो 
और व्यवस्था 
तर्जनी के संस्कारों में 
आकंठ डूबा हुआ है 
क्या तुम हलाहल
पी पाओगी ?
तुम्हारी परवरिश 
खिलखिलाने के प्रवाह में 
प्रफुल्लित हुई है 
कोशिश करना हलाहल 
अमृत कर पाओ 
पर घुटन की गंभीरता लिये नही 
चली आना जब भी ऐसा लगे 
अपने घर के उस पुराने प्रफुल्लित प्रवाह में अपना परिवेश

अपना परिवेश

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गुनेश्वर

अपने भीगे भीगे होंठों से छु कर देना 
जो खत तुम्हें भेजा था पढ़कर देना|||
लेता रहा हूँ अंगड़ाइयाँ यादों मे तिरी
एहसासों मे कोई मंजर गढ़कर देना|||  
---------अपने भीगे-भीगे होंठो से छु कर देना 2
---------जो खत तुम्हें भेजा था पढ़कर देना|||
आओ न आ जाओ न अब जरा 
न छूकर जाए उदासी का मंजर 
सारी अपनी परेशानियाँ दे देना
देना अपनी सारी निशानियाँ देना 
वो प्यार की सारी कहानियाँ देना  
---------अपने भीगे-भीगे होंठो से छु कर देना 2
---------जो खत तुम्हें भेजा था पढ़कर देना|||
आ भी जाओ तुम अब ज़िंदगी मे मेरे    
ज़िंदगी को मैं भी जी लूँ हँस के जरा 
कबतलक रहूँ यूँ यादों मे बताओ जरा 
आओ न खुशियाँ मैं भी सजा लूँ जरा 
---------अपने भीगे-भीगे होंठो से छु कर देना 2
---------जो खत तुम्हें भेजा था पढ़कर देना|||
हैं रहने लगी ये फिज़ाएँ भी तल्ख  
तल्खियों को मैं कैसे निभाऊँ जरा  
सजाऊँ मैं कैसे खुशियाँ चमन मे 
गगन भी तो रोता है मेरे नयन मे
आओ न जरा आ भी जाओ जरा 
---------अपने भीगे-भीगे होंठो से छु कर देना 2
---------जो खत तुम्हें भेजा था पढ़कर देना|||

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गुनेश्वर

प्रसव का दर्द तुम सहो 
तो समझ मे आए माँ क्या होती है 
कोख का बोझ तुम सहो 
तो समझ मे आए माँ क्या होती है 
कमर का दर्द तुम सहो 
तो समझ मे आए माँ क्या होती है 
तुमने सहा ही क्या है माँ का दर्द जो तुम जानोगे 
जब तुम आने की आतुरता मे थे 
तब दांतों के बीच जीवहा दबा अपने प्राण अटकाए रही उस दर्द को तुम क्या जानोगे 
मैं क्या जानूँगा 
सिर्फ तुम्हारी किलकारी के लिए 
हर बार मर मर जन्म लेती रही 
उस दर्द को तुम क्या जानोगे मैं क्या जानूँगा 
उसके बाद भी , उसने झेला आकाल सा सुनापन, भूखे पेट पड़ी रही ममता का चादर ओढ़े ||
जब तुम ठिठुरन मे होते उस चादर मे लपेट रखा 
तन तुम्हारा उस आस्था और प्यार को 
तुम क्या जानोगे मैं क्या जानूँगा 
तुम्हारी झिड़कियाँ भी प्रसाद समझ
ग्रहण करती रही ताकि तुम नाराज न हो जाओ 
उन सब बातों का अहसास तुम क्या जानोगे 
मैं क्या -------------

प्रसव का दर्द तुम क्या जानोगे 
मैं क्या जानूँगा माँ क्या होती है 
तुम क्या जानोगे मैं क्या जानूँगा..

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गुनेश्वर

बादलों को ये कहते सुना है 
कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं 
रफ्ता रफ्ता जीवन चलता है 
प्यार में बस कुर्बानियाँ ही रह जाती हैं 

अन्तस को संभालना सही है 
विकल रहने की कोई बाध्यता तो नही है 
उर्जित रहना परवश हुए बिन 
फिर भी कुछ नादानियाँ तो रह ही जाती हैं 

वर्गो के मापदंड अलग से है 
साध्य और असाध्य में भी है अंतर्द्वंद्व बहुत 
निर्वाह जिज्ञासा में जीर्ण हो रहा
अनबुझ सी परेशानियाँ तो रह ही जाती हैं 

शब्द, श्रृंगार से क्यों परे हो रहे
आत्मिक मौन भी यहाँ अब तो मदहोश है 
सब्र को भी अब इम्तिहान चाहिए
पर उम्मीद की विस्तारियाँ रह ही जाती है 

बादलों को ये कहते सुना है 
कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं 
प्यार में बस कुर्बानियाँ ही रह जाती हैं
गुनेश

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