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उपकार वर्मा

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उपकार वर्मा

जीवन एक कविता है 
कविता में सार छुपा हैं 
सारे भाव छुपे हैं 
दुख का एक संसार छुपा है
बोलूं तो क्या सुन पाओगे 
सुनने में जंजाल बड़ा है
बातों से गर डर जाते हो 
तो चारों ओर ही जाल बिछा है
कैसे बाहर जा पाओगे 
इसमें आकर फस जाओगे
शब्दों का भौकाल बड़ा है 
तुमसे तो सौ बार बड़ा है
फिर भी गर तुम अडिग खड़े हो
इतने पर भी नहीं डरे हो
तब तुम पार निकल जाओगे
जो चाहोगे कर जाओगे
खाहीं खंदक सारा जंगल 
चलते चलते पार करोगे
सर के ऊपर अंबर विस्तृत 
नीचे सब संसार करोगे
खुद से जीत चुके हो गर तुम 
फिर तो कोई हार नहीं है
सब कुछ फूल लगेगा तुमको 
फिर कोई जंजाल नहीं है।

©उपकार वर्मा #thelunarcycle
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उपकार वर्मा

मंच से सब सुरक्षित हैं 
उतर कर मार दे गोली
तो क्या कीजे 
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ 
मगर यह एक वादा है 
तो क्या कीजे
विदेश में भाई-भाई हैं 
घर पर लडा़ दीजे 
तो क्या कीजे
जहां वह नहीं,सुरक्षित नहीं 
जहां हैं सुरक्षित है?
तो क्या कीजे
विकास है चारों तरफ 
और इतना है 
देख लीजे
नामों का बदलना ही जरूरी है
बदलना है 
बदल दीजे 
विचारों का क्या गन्दे हैं 
नहीं बदले,क्यों बदले 
क्या कीजे
सियासत में सब पागल है 
और इतने हैं 
देख लीजे
कोई चेहरा नहीं इनका 
बहरूपिया हैं बदलते हैं
तो क्या कीजे........

©उपकार वर्मा
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उपकार वर्मा

मैं शायर हूं 
पर स्कूल जाता हूं 
शाम का पढ़ा लिखा सब 
सुबह भूल जाता हूं 
आता हूं किताबों के करीब 
तो शायरी से दूर जाता हूं 
और करता हूं शायरी 
तो स्कूल भूल जाता हूं ||

©उपकार वर्मा
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उपकार वर्मा

मैं चाहता हूं कि कोई राह निकले 
तेरे दिल में मेरे लिए बेपनाह निकले

मैने तुझको अपनी जान मान रखा हैं
चाहता हूं मेरे लिए भी तेरी जान निकले

तेरी गली की आदत सी हो रही है
एक बार निकले फिर बार बार निकले 

खिड़कियां, दरवाजे, चौखट, बालकनी
गली की हर चीज से मेरी पहचान निकले

मैं पढ़ता रहता हूं उसका चेहरा हरदम
कि शायद कोई पन्ना आसान निकले

मैं चाहता हूं वो मेरे घर चली आए 'उपकार'
फिर हम-तुम=हम तेरे घर के मेहमान निकले

©उपकार वर्मा
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उपकार वर्मा

सोचता एकांत फिर से बैठ कर के 
जा रहा हूं किस तरह यह विजय करके 
किस तरह पुरुषार्थ खुद से लड़ रहा है 
झेलना कितना और क्या-क्या पड़ रहा है 
जा रहा हूं मैं स्वयं को हीन करके 
प्राप्त था सबकुछ सभी कुछ  दीन करके 
आप से ही आप लड़ता जा रहा हूं 
किस तरह मैं आगे बढ़ता जा रहा हूं 
सहन होती नहीं व्यथा किससे कह सकूंगा 
स्वयं के प्राण तज जीवित कैसे रह सकूंगा 
किस तरह मैं जी सकूंगा घाव लेकर 
सोचकर ही व्यथित होता जा रहा हूं 
आपसे ही आप लड़ता जा रहा हूं 
किंतु विजयी ही बनूंगा सोचता हूं 
रास्ता आगे पड़ा वह देखता हूं 
मैं तजूगा उर के हर एक घाव को 
हीनता के दीनता के व्यर्थ सारे भाव को 
तोड़ दूंगा बेड़ियों को रश्शियों  को 
फिर बनाऊंगा नई पगडंडियों को 
दर्द को उत्साह में फिर मोड़ दूंगा 
मंजिलों में नई मंजिल जोड़ लूंगा 
अब बढूंगा एक नया अंगार बनके 
न जी सकूंगा फिर यहां श्रंगार बनके 
आज ही इस भावना को त्यागता हूं 
अब जंग में फिर से उतरना चाहता हूं 
अब हृदय की वेदना ना चाहता हूं 
बस लक्ष्य को बस लक्ष्य को भेदना चाहता हूं

©उपकार वर्मा #lonely
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उपकार वर्मा

शरीके गम हुए 
खुशी में हंस लिए
चिराग मानिए 
या कि दिये हुए
बड़े सफेद हैं 
कफन नहीं हुए 
शब्द घूटकर यहाँ
दफन नहीं हुए
चिराग जल पड़े 
मगर नहीं जले 
देख कर मगर 
तमाम जल गए
लोग गिरे नहीं 
वही गिर गए 
गिरे हुए तमाम 
बहुत बड़े हुए

©उपकार वर्मा #alone
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उपकार वर्मा

हाथों में पतवार थामो
तोड़ दो यह  रस्सियां
तट पर बची अब नहीं 
अपनी कोई बस्तियां
तूफानों की तरफ मोड़ लो
ले चलो यह कश्तियां
जब जमीने फिर मिलेंगे 
फिर बनेगी बस्तियां
मन में एक सन्नाटा रखो 
एक जिद को पाल लो
एक अटल विश्वास रखो
और दिल में आग को
रास्ते में गर सूल हों
उनके तू अनुकूल हो 
संघर्ष पथ पर तब बढ़ो
जब बिघ्न सब मंज़ूर हो 
नाव चलने का मजा तब
धार जब प्रतिकूल हो
राह में जो भी मिले 
छोड़ दो उस पीर को
राह पर बढ़ते चलो
तोड़ कर जंजीर को

©कवि उपकार वर्मा #dost
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उपकार वर्मा

यह रास्ते ही हैं जो हमें मंजिल दिखाते हैं
तमन्ना मंजिल के देकर हमें चलना सिखाते हैं 
तमन्नाए यहां लेकर जमाने से परे होकर 
हमें ख्वाबों में बुनकर मजबूत बनाते हैं 
जिनकी हमें कभी चाहत नहीं होती 
उनसे भी कहीं राहों में हमको मिलाते हैं 
कभी जगमगाती रोशनी कभी अंधेरों में चलना 
कभी गिरना कभी उठना कभी गिरकर फिर संभलना 
हमको सिखाते हैं 
कभी महफिल कभी सूना कभी चुपचाप से चलना 
कभी आंखों में आंसू,कभी खुशियों भरी  होठों
हर लम्हा बिताते हैं 
यह रास्ते ही हैं जो हमें मंजिल दिखाते हैं 
तमन्ना मंजिल की देकर हमें चलना सिखाते हैं 
कभी वह गांव की खुशबू कभी झरने कभी बादल 
कभी बूंदें कभी पर्वत, कभी वह धूल और माटी
कभी वह शून्य की टिम टिम, कभी वह हवा की सवारी 
हमें सब कुछ सिखाते हैं 
यह रास्ते ही हैं जो हमें मंजिल दिखाते हैं 
तमन्ना मंजिल की देकर हमें चलना सिखाते हैं 
पहाड़ों से समंदर तक धरती से मंगल तक
कभी रुकते नहीं हैं यह कभी थमते नहीं हैं यह
कभी पर्वत की पगडंडी कभी लहरों की बेचैनी 
कहीं शुरुआत न इनकी कहीं ना अंत है इनका
रास्ते ही हैं कहीं ना जिक्र है जिनका 
कहीं शुरुआत न इनकी कहीं ना अंत है इनका।

©कवि उपकार वर्मा #walkingalone
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उपकार वर्मा

अपितु मेरे साथ मेला, 
किंतु मैं केवल अकेला
चल रहा है मन में मेरे 
क्षोभ देखो कितना गहरा
 हृदय के निस्पंदनो में
जैसे लगा कोई पहरा
या छुपा हो पहरुए के
पास में ही राज गहरा
प्रेम के पाश्र्व में
अश्रु के यूं  तरल धागे
अपने मन की विकलता से
अपना मन ही क्यू यूं भागे
सोचता हूं पल दो
फिर  हूं  कहता
व्यर्थ की इन भंजिमाओ
से विकल मन क्यू है रहता
सरलता से काट लेता 
ओझिल रास्ते, पग नाप लेता
चाहे पहर दो और लगते
हौसले से काम लेता
सहज मन यू क्रुध ऐसे
हो रहा हो युद्ध जैसे
करूं मन अब शांत कैसे
द्वन्द्व में हूं 
पर याद तेरी सर चढ़ी 
ज़िद्दी बड़ी , पीछे पड़ी
भीम काया वक्ष पर
जैसे कोई बेला चढ़ी
एक क्षण भूला
फिर याद आई
साथ मेरे चल पड़ी
प्रतिपल और हर घड़ी 
हां हर घड़ी
हां हर घड़ी........
         उपकार वर्मा

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उपकार वर्मा

Jajbato ka bhara samundar ho...

Tum dur kahi nahi mere andar ho

Lekin u es tarah arop lagate q ho

Wafa me hu tumhari bewafa batate q ho 

Ki sarmidagi hoti h mujhe mujhape

Etne arop laga ke satate q ho....

Upkar Verma
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