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amiteshsanand2901
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Amitesh S. Anand

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Amitesh S. Anand

खुश रहने के लिए
कम दिमाग का होना जरूरी है
वरना जिंदगी है क्या.........
एक वक्त के बाद
वजहों की खुशी भी मजबूरी है
कुछ वजहों की खुशी से खुश हैं
कुछ बेवजह खुश हैं
हर खुशी में इक साजिश है
यकीनन ....... 
खुश रहने के लिए
कम दिमाग का होना जरूरी है । 
चेष्टा का सच, नाक पर घूंसा
भले ही भोग लगाता रहे, मूर्ति पर मूसा
खुश रहना मुमकिन नहीं
हर ओर परजीवी तफरीह
उफ्फ्फ.... 
बुद्धिजीवी बिरादरी, मत बताओ जिंदगी
जिंदगी जान लेना ही है, दुखों की वजह
क्योंकि....... 
खुश रहने के लिए
कम दिमाग का होना जरूरी है ।
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Amitesh S. Anand

" वो कभी कभार मिलती थी 
......जिंदगी लगती थी
अब रोज ही मिलने लगी है
....तो जैसे
ऊब सा गया हूँ मैं "
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Amitesh S. Anand

बात करतीं हैं किताबें, सुनने वाला कौन है ? 
सब उलट देते हैं पन्ने, और पढ़ता कौन है ?
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Amitesh S. Anand

आसां है..... 
अपना रवि बन जाना । 
बहुत कठिन है.... 
किसी भी दौर 
रविश हो पाना ।।
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Amitesh S. Anand

मेरी जरूरतों को,उसकी कितनी जरूरत थी
काश...कभी मैं ये बोल पाता ।। 
चुप, मैं चुप्पी पर भी लगा गया, 
काश राज कभी ये खोल पाता ।। 
घोर तिमिर में जब लगा, 
"किरण है वो" ।। 
हर तिमिर मैं पी गया,
 "है किरण वो" ।। 
शायद....मेरे तिलिस्म की, 
सोंची-समझी कोई खोज है वो ।। 
सूने समुद्र के गहन से, 
खुलकर दौड़ी इक मौज़ है वो ।।
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Amitesh S. Anand

कुछ शब्द मुखौटा हैं, कुछ यादें चेहरा हैं
ये कैसी भूल भुलैया है, जिसमें दरिया और सेहरा हैं ।। 

रातों की गर्मी है, सपनों की बेशर्मी
चांद में सेहरा है, मन जिसमें बहरा है ।। 

ख्वाहिशों के खिलंदड़ हैं, होशोहवास के अंधड़ हैं
हरिण की कुलांचे हैं, आंखों में बंजर हैं  ।। 

ये रुह की गूंजें हैं, ख्वाजा की चाहत में
मजार पर मन रखे, चट्टानें भी कंकर हैं  ।। 

बादल यूँ बरसा है, बूंद बन यूँ सीने में
इतराने लगे खुद पर, ख्वाबों के समंदर हैं ।।
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Amitesh S. Anand

वो छिप गई हैं आहटें
जो शोर करती थीं ! 

वो बिखर गया है इंद्रधनुष
जो रंगों में रंग भरता था ! 

वो चमक आंखों की बुझ गई
जो पानी में चांद सी प्रतिबिंबित थी ! 

वो करवटें आज शांत हैं
जो स्वप्नों में सोया करतीं थीं ! 

आह..... 
तुम सरल होकर कठिन हुए
कठिन में बहुत सरल थे !! 

ये वक्त तुमको संग ले गया
कह.....
मुझको अब तुम वक्त दो !!
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Amitesh S. Anand

" जो चाहता है इंसान कब कहाँ हो पाता है
अपनी ही बनाई विडम्बनाओं में इंसान खो जाता है
कुछ अच्छा तो कुछ बुरा अक्सर हो जाता है
इसी उधेड़बुन में इंसान आखिरी नींद सो जाता है "
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Amitesh S. Anand

हे सरस्वती माँ....... 
चहुँ दिशा गुंजित तेरा ही प्रताप
सर्वत्र व्याप्त तेरा ही आलाप
तुझसे ही सुवासित रज-रज
क्षण-क्षण अक्षुण्ण धरा-आकाश ।। 

हे सरस्वती माँ....... 
धवल वसनों में श्रंगरित तेरी काया
ज्ञान परिपूर्ण सब मोह-माया
पुण्य- पतित को तू ही कर रही विभूषित
मूर्ख को करती पांडित्य से मंडित ।। 

हे सरस्वती माँ....... 
सजा रहता हृदयों में तेरा रूप साधारण
तू ही भीड़ जगत को कर रही असाधारण
असभ्य मानवों को सिखा रही 
आदि से अद्यतन सही आचरण ।। 

हे सरस्वती माँ....... 
उतर रहा सभ्यताओं में तेरा ही विन्यास
कण- तृण को तुझ पर ही भरोसा
तुझसे ही मिटता रहा सदा
भू- व्योम-ब्रह्मांड का त्रास ।। 

हे सरस्वती माँ.......
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Amitesh S. Anand

निरंतर जीवन जगत में
जीवन बहता जा रहा 
बन नदी  । 

बिना कोई उद्गम, 
बिन पड़ाव
कहाँ से उद्गम, कहाँ निर्गम  ? 

निक्षेप ही निक्षेप, 
दुर्गम ही दुर्गम
अंतहीन सिलसिला । 

बिना कोई बांध,बिना समाधान
ना धार, ना आधार
कहाँ जुड़े, कहाँ बिछुड़ें  ? 

निरख परख क्या, क्यों, कब तक
है कल्पना शब्दों की तो
क्यों नहीं बनती हकीकत  ? 

अनंत से बहती आ रही
थकी जीवन नदी की व्यथा का
महाकाल है कहाँ  ? 

सागर में या मरुस्थलों में 
सिमटेगा जहां  ।
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