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kavitakosh4285
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विलुप्त आवाज़

कविता , ग़ज़ल , शायरी के माध्यम से लोगों के आप सभी के दिलों पर राज करने का एक जरिया

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विलुप्त आवाज़

गोविंद राकेश

#rangbarse

गोविंद राकेश #rangbarse #शायरी

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विलुप्त आवाज़

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विलुप्त आवाज़

भूलना आसान नहीं था पर मैं भूलता गया,
ज़ख्म मुझे भी मिले पर  मैं संभलता गया।

जिसने जैसा भी चाहा मैं वैसा ढलता गया,
औरों के लिए ही खुद को  बदलता गया।।

©विलुप्त आवाज़ #Walk
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विलुप्त आवाज़

गलतियां तो बहुत किया हूं
पर कभी इरादे गलत नहीं थे मेरे

©विलुप्त आवाज़ #achievement
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विलुप्त आवाज़

परंपरा

#UnlockSecrets

परंपरा #UnlockSecrets

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विलुप्त आवाज़

#TuneWithTone
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विलुप्त आवाज़

Alone  आँधी में चराग़ जल रहे हैं
क्या लोग हवा में पल रहे हैं

ऐ जलती रूतो गवाह रहना
हम नंगे पाँव चल रहे हैं

कोहसारों पे बर्फ़ जब से पिघली
दरिया तेवर बदल रहे हैं

मिट्टी में अभी नमी बहुत है
पैमाने हुनूज़ ढल रहे हैं

कह दे कोई जा के ताएरों से
च्यूँटी के भी पर निकल रहे हैं

कुछ अब के है धूप में भी तेज़ी
कुछ हम भी शरर उगल रहे हैं

पानी पे ज़रा सँभल के चलना
हस्ती के क़दम फिसल रहे हैं

कह दे ये कोई मुसाफिरों से
शाम आई है साए ढल रहे हैं

गर्दिश में नहीं ज़मीं ही ‘अख़्तर’
हम भी दबे पाँव चल रहे हैं

©विलुप्त आवाज़ #alone

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विलुप्त आवाज़

लौट आया हूँ तुम्हारे द्वार से प्रियतम, थक गया था मैं तुम्हे आवाज़ दे दे कर।

मोड़ पर वादा तुम्हारा आँख में आँसू लिए
लौट जाने की विनय करता हुआ व्याकुल मिला।
तब तुम्हारे मौन का रूमाल उसको सौंपकर
कह दिया अब फायदा क्या! क्या शिकायत! क्या गिला!

रह गया मेरा समर्पण ही कहीं कुछ कम, इसलिए ख़ामोश था शायद तुम्हारा घर।

एक बिन्नी टूटकर जो थी बनी वरदायिनी
आज मुझसे कह रही तुमने मुझे माँगा न था।
बाँध आयीं डोर कच्ची बरगदों ने यह कहा
मावसों पर जो बंधा वह प्यार का धागा न था।

कुल मिलाकर दांव पर हैं आज मेरे भ्रम, हार जाओगी बहुत कुछ जीतकर चौसर।

स्वप्न में भी मांग लो वह भी मिले तुमको सदा
प्रार्थना में मांग बैठा था कभी भगवान से।
आज मेरी प्रार्थना का फल तुम्हें मिल जाएगा
मुक्त कर दूंगा स्वयं को प्यार के अहसान से।

अब सतायेंगे मुझे बस याद के मौसम, और गीतों में तुम्हारे नाम के अक्षर।

©विलुप्त आवाज़ अंकित काव्यांश


#Trees

अंकित काव्यांश #Trees

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विलुप्त आवाज़

दलित सदैव रहे
नाजायज़ फेंके हुए बच्चों की तरह
पूरी क़ौम से उपेक्षित
समूचे समाज से परित्यक्त
सभी धर्मों द्वारा शोषित
राजसत्ता द्वारा विस्मृत
दलितों को दिए गये ज़ख़्म
छोड़ दिया गया उन्हें बेसहारा
ख़ुद ही करने को अपनी मरहम-पट्टी

अब हमारे बीच आयी हैं
सौम्य रूप में कार्यरत
सम्भ्रान्त स्वैच्छिक संस्थाएँ
जो दूसरों द्वारा होती हैं संचालित—
हमारे नाम पर,
ताकि वह खा सकें उसका फल
रसदार गूदा
और हमारे लिए छोड़ दें
गुठली और छिलके
यह कहते हुए कि
'फलों का सबसे पौष्टिक तत्त्व इन्हीं में है।'

एन मनोहर प्रसाद

©विलुप्त आवाज़ #OneSeason
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विलुप्त आवाज़

 #seaside
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