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Dharmendra Azad

धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद' शिक्षा- एम ए (हिन्दी साहित्य) प्रकाशन- उन्नयन, शेष , कथाबिंब, कादम्बनी एवं अन्य पत्रिकाओं में । दो कविता संग्रह 'उसके बारे में ' एवं 'ओ माय लव' , एक कथा संग्रह 'आकल्प' तथा एक गजल संग्रह 'उनकी यादों के उजाले' प्रकाशित। साहित्यिक लघु पत्रिका "ज्ञानपुंज" का सम्पादन-प्रकाशन , फिलहाल स्थगित । सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन सम्पर्क- आजाद प्रकाशन तेन्दुखेड़ा-487337 जिला- नरसिंहपुर (म प्र)

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Dharmendra Azad

White ग़ज़ल 

अपनी चाहत को अगर आब बना सकता था 
आँसुओं से भी वो सैलाब बना सकता था 

उसने आँखों में रखा अश्क बनाकर मुझको 
चाहता तो वो मुझे ख़्वाब बना सकता था 

हिज्र में फूल जो पीले से हुए जाते हैं 
छू भी लेता तो वो सुरख़ाब बना सकता था 

साथ होते हुए भी हाथ बढ़ाया न गया 
वर्ना दरिया को भी पायाब बना सकता था 

अपना समझा तो किनारे पे खड़े हो वर्ना 
ठहरे पानी में भी गिर्दाब बना सकता था 

तितलियों से था उसे इश्क़ बगीचे से नहीं 
सूखे पेड़ों को भी शादाब बना सकता था 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

White ग़ज़ल 

अपनी चाहत को अगर आब बना सकता था 
आँसुओं से भी वो सैलाब बना सकता था 

उसने आँखों में रखा अश्क बनाकर मुझको 
चाहता तो वो मुझे ख़्वाब बना सकता था 

हिज्र में फूल जो पीले से हुए जाते हैं 
छू भी लेता तो वो सुरख़ाब बना सकता था 

साथ होते हुए भी हाथ बढ़ाया न गया 
वर्ना दरिया को भी पायाब बना सकता था 

अपना समझा तो किनारे पे खड़े हो वर्ना 
ठहरे पानी में भी गिर्दाब बना सकता था 

तितलियों से था उसे इश्क़ बगीचे से नहीं 
सूखे पेड़ों को भी शादाब बना सकता था 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad #GoodMorning
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Dharmendra Azad

White ग़ज़ल 

तुमको हर इक दुआ में ही माँगा तो मैंने था 
रुकना नहीं था तुमको पुकारा तो मैंने था 

शायद तुम्हें न याद हो अब नाम भी मेरा 
तुमने तो सिर्फ़ चाहा था पूजा तो मैंने था 

रो- रो के अब्र ने तो समंदर भरे हैं बस 
इससे ज़ियादा हिज्र में रोया तो मैंने था 

तूफ़ाँ से इनमें अब भी मचलते हैं रात दिन 
आँखों से तेरा ख़्वाब वो देखा तो मैंने था 

तुम हो गए किसी के तुम्हारा हुआ कोई 
इस ज़िंदगी के खेल में खोया तो मैंने था 

जाने कहाँ से आज ये फिर दर्द सा उठा 
हाथों से अपने काँटा निकाला तो मैंने था 

ग़ज़लों को मिल रही है ये किस बात की सज़ा 
काँटों से जबकि दिल ये लगाया तो मैंने था 

अब क्या ग़ज़ब कि कोई नमक भर गया 'धरम'
दुनिया को ज़ख़्म खुद ही दिखाया तो मैंने था 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

हों खुशियों के सारे ही पल छिन मुबारक !
तुम्हें हो तुम्हारा जनम दिन मुबारक  !! 

@धर्मेन्द्र 'आज़ाद'

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©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

Year end 2023 मतला और एक शे'र-
(--23, तुम्हारी मोहब्बतों के नाम) 

तअल्लुक ख़त्म समझो जब भरोसा टूट जाता है 
दुबारा जुड़ नहीं सकता जो पत्ता टूट जाता है 

वो सारी उम्र चुभता है हमें सूखा हुआ आँसू 
हो आँखों से बड़ा कोई भी सपना टूट जाता है 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

ग़ज़ल 

सभी कुछ है उसमें वफ़ा बस नहीं 
दग़ा का कोई नक़्श-ए-पा बस नहीं 

रखूँ चारागर से भी उम्मीद क्या 
दुआ दे रहा है दवा बस नहीं 

हैं मसले कई मशविरे भी कई 
समाधान का रास्ता बस नहीं 

हवा तेज होती तो बुझता दीया 
बुझे वो मिले जब हवा बस नहीं 

बहुत कुछ तो उसमें मेरे जैसा है 
वो मेरी तरह चाहता बस नहीं 

हुआ तो बहुत कुछ मेरे दिल के साथ 
मगर ये हुआ तो फ़ना बस नहीं 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

ग़ज़ल 

दिल में दबा के जिसने रखा सारे घर का दर्द 
अब उसका क्या बिगाड़ सकेगा कमर का दर्द 

सबको फ़क़त दिखा मेरे ऐबो हुनर का दर्द 
ऐसे भी कुछ तो जाता रहा है सफ़र का दर्द 

जिसकी खुशी थी मेरी तो सबसे बड़ी खुशी 
उसकी खुशी ही बन गया है उम्र भर का दर्द 

उसकी भी नब्ज़ बैठ रही नब्ज़ देखकर 
समझेगा कोई कब ये किसी चारागर का दर्द 

अपने ग़मों को खेल मुक़द्दर का कह दिया 
ये सोचकर कि बढ़ न सके हमसफ़र का दर्द 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

ग़ज़ल 

उनके हिस्से में फ़क़त रोना ही आना चाहिये 
साथ जिनको अपनी खुशियों के ज़माना चाहिये 

अपने सिर पर कितने मौसम झेलते आये शजर 
बस परिंदों के लिए तो इक ठिकाना चाहिये 

अहमियत रिश्ते की है तो भूल जाओ मसअला
हो अहम मुद्दा तो रिश्ता भूल जाना चाहिये 

आदमी की जीभ का ये दोगलापन देख लो 
चटनी ताज़ा पर मुरब्बा तो पुराना चाहिये 

डालियों से खेलते बन्दर करें संकेत क्या 
हर नये रिश्ते को पहले आज़माना चाहिये 

ज़िंदगी में बस सुखी रहने का इक ही मंत्र है 
ख़र्च करने से ज़ियादा ही कमाना चाहिये 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

ग़ज़ल 

ग़र यार हो तो यार के जैसे रहा करो 
पतझड़ में भी बहार के जैसे रहा करो 

कुछ रोज़ रह के जिस्म के मालिक न हो गए 
इसमें किराएदार के जैसे रहा करो 

हाज़िर जवाब होना बुरी बात तो नहीं 
पर कुछ तो कर्जदार के जैसे रहा करो 

जिसका कि स्वाद बढ़ते ही जाता है दिन ब दिन 
उस आम के अचार के जैसे रहा करो 

खुशियों को फिर किसी की नज़र लग न पायेगी 
उजड़े हुए दयार के जैसे रहा करो 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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Dharmendra Azad

ग़ज़ल 

पुरानी याद में खोकर वो दिल मायूस कर बैठी 
न जाने क्यों वो अपने दिन को ही मनहूस कर बैठी 

किसी के जिस्म में महसूस मुझको करते करते वो 
हुआ फिर यूँ कि इक दिन उसको ही महसूस कर बैठी 

किनारों पर शजर गिरते गये मिट्टी के कटने से 
नदी खुश है कि खुद को इस तरह क़ामूस कर बैठी 

वज़ूद अपना मिटाकर भी तो मीठा कर दिया उसको 
शकर पानी में खुद को इस तरह मानूस कर बैठी 

उसे एहसास उसने ही कराया बेहयाई का 
वो जिसके नाम अपनी दौलत ए नामूस कर बैठी 

वो लड़की मुस्कराई तो ख़ामोशी छा गई घर में 
जो औरों की खुशी में खुद को ही नाक़ूस कर बैठी 

@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले 'आज़ाद'

©Dharmendra Azad
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