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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

चहुं  दिशा मार्तण्ड रोशन चाहिए ,
सत्य  ये  धरती ये  गगन  चाहिए |
सत्यता  विचरित हो हृय वीथि से,
सत्यता लिखती ही कलम चाहिए |
सत्य  से  परे  नहीं  सम्बन्ध  हों  ,
सत्य वाकों की सुगमता चाहिए |
कौन  कहता है  छलावा जीत है ,
सत्य की पुष्पित मधुरता चाहिए |
सत्य ये धरती ये गगन चाहिए || truth

truth

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

हैं राम-चन्द्र के वंशज हम 
डरते नहीं बाण-कटारी से |
शीश विलग करते अरि का 
हम तेज धार तलवारी से ||
इक पुष्प नहीं चुनने देंगे  
अब काश्मीर-फुलवारी से |
ध्वज संग राष्ट्र-गीत गायेंगे 
 घर-घर की अट्टारी से || हैं राम-चन्द्र के वंशज हम 
डरते नहीं बाण-कटारी से |
शीश विलग करते अरि का 
हम तेज धार तलवारी से ||
इक पुष्प नहीं चुनने देंगे  
अब काश्मीर-फुलवारी से |
ध्वज संग राष्ट्र-गीत गायेंगे 
 घर-घर की अट्टारी से ||

हैं राम-चन्द्र के वंशज हम डरते नहीं बाण-कटारी से | शीश विलग करते अरि का हम तेज धार तलवारी से || इक पुष्प नहीं चुनने देंगे अब काश्मीर-फुलवारी से | ध्वज संग राष्ट्र-गीत गायेंगे घर-घर की अट्टारी से ||

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

नित हार के माथे नवल मैं जीत लिखती हूँ,
आंसूँ को पोंछ मधुरमय संगीत लिखती हूँ ...||
रण-भूमि से भागूँ ? सुनो,कायर नहीं हूँ मैं,
निज-राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...||

भू-खण्ड-खण्ड भाग का फिर एक अंग हो,
शत्रुघ्न बनके अरि का अब मुण्ड-मण्ड हो,
हो उदित हिम केसरी, मन-प्रण प्रचण्ड हो,
सीमा परे कुकृत्य पर अविस्मर्ण्य दण्ड हो ,
जीवन्त हों निर्मोही मन ये अपेक्षा रखकर ,
मस्तक-पटल पर केसरी मनमीत लिखती हूँ ...||
निज राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...||

हम उन वीरों के अनुज, कबन्ध जिनके लड़ते थे,
बरछी-बाण-कोदंड-कटारी से ना तनिक डरते थे ,
रण में धड़ ही दुश्मन को कर चीर अलग करते थे,
लिए एक-लिंग शपथ स्व-जननी पर मर-मिटते थे,
धन-यश लोलुपता को त्यागो राष्ट्र-उदय हो लक्ष्य,
यूँ एकीकृत भारत की नव-विजय रीत लिखती हूँ ...||
निज  राष्ट्र की  अपने  हृदय  में  प्रीत  लिखती  हूँ ...||

उठो वीर ! अब सजग बनो, वरना संताप करोगे ,
समर-भूमि  से  यदि  डरे  फिर  पश्चाताप करोगे ,
प्रतिदिन कुछभी खोने का कब तक आलाप करोगे,
अभी रहे  यदि सुप्त-अस्थिर फिर से पाप करोगे,
हम हों विजित प्रति ग्रीष्म-वर्षा-शीत लिखती  हूँ ,
हृय  बंधुत्त्व  संजोये  कर्त्तव्य - गीत   लिखती  हूँ ...||
निज राष्ट्र की  अपने  हृदय  में  प्रीत  लिखती  हूँ ...||

#समीक्षा"एक प्रारम्भ" ©®
नाथ-नगरी , बरेली,उ.प्र., भारतवर्ष नित हार के माथे नवल मैं जीत लिखती हूँ,
आंसूँ को पोंछ मधुरमय संगीत लिखती हूँ ...||
रण-भूमि से भागूँ ? सुनो,कायर नहीं हूँ मैं,
निज-राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...||

भू-खण्ड-खण्ड भाग का फिर एक अंग हो,
शत्रुघ्न बनके अरि का अब मुण्ड-मण्ड हो,
हो उदित हिम केसरी, मन-प्रण प्रचण्ड हो,

नित हार के माथे नवल मैं जीत लिखती हूँ, आंसूँ को पोंछ मधुरमय संगीत लिखती हूँ ...|| रण-भूमि से भागूँ ? सुनो,कायर नहीं हूँ मैं, निज-राष्ट्र की अपने हृदय में प्रीत लिखती हूँ ...|| भू-खण्ड-खण्ड भाग का फिर एक अंग हो, शत्रुघ्न बनके अरि का अब मुण्ड-मण्ड हो, हो उदित हिम केसरी, मन-प्रण प्रचण्ड हो, #समीक्षा

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

By.. My mother

By.. My mother

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

"सोनिया कालरा"
सो - सोम-सुधा- सम सरस  सलोनी
             सुन्दर सहृद स्वभाव सरल,
नि - निश्छल-नृपा,  निरन्तर नवरित
            नैसर्गिक नित,निलय नवल,
या - यामिनि-योषित,यौवित-यद्वित
                यवन्ति युग-युग यद्वरल,
का - काकधेनुका    कुबेर     कन्या
        कमला कुसुमित कुंज  कमल,
ल -  लय-लिपिबद्ध लब्ध-प्रतिष्ठित
         ललित  ललाजू लवित लवल,
रा -  राज-स्वर्णिता     रत्न-गर्भिता
              रूप-रेखिका रजत रवल... "सोनिया कालरा"
सो - सोम-सुधा- सम सरस  सलोनी
             सुन्दर सहृद स्वभाव सरल,
नि - निश्छल-नृपा,  निरन्तर नवरित
            नैसर्गिक नित,निलय नवल,
या - यामिनि-योषित,यौवित-यद्वित
                यवन्ति युग-युग यद्वरल,
का - काकधेनुका    कुबेर     कन्या

"सोनिया कालरा" सो - सोम-सुधा- सम सरस सलोनी सुन्दर सहृद स्वभाव सरल, नि - निश्छल-नृपा, निरन्तर नवरित नैसर्गिक नित,निलय नवल, या - यामिनि-योषित,यौवित-यद्वित यवन्ति युग-युग यद्वरल, का - काकधेनुका कुबेर कन्या #कविता

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

खास-खास सबक...
ग़र ज़िन्दगी के चाहिए...
अपनों से रिश्ते 
ज़रा शिद्दत से निभाइए. खास-खास सबक...
ग़र ज़िन्दगी के चाहिए...
अपनों से रिश्ते 
ज़रा शिद्दत से निभाइए.

खास-खास सबक... ग़र ज़िन्दगी के चाहिए... अपनों से रिश्ते ज़रा शिद्दत से निभाइए.

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

"अधूरे पन्ने"

एक के बाद एक
अधूरे पन्ने...
हुए व्याकुल,
नयी रचना के इन्तज़ार में ,
ठीक वैसे ही,
जैसे,
मरु में तृष्णा से त्रस्त यायावर...
देखो तो,
शान्त-गुमसुम से
बैठे देख रहे मुझको,हाँ मुझको ही .
सोचते...
जाने कब भरेगा घड़ा 
मेरी प्रियतमा की आह का..
जाने कब मिलेंगे उसे जी भर के शब्द 
बयाँ करने को 
वो सब कुछ 
जो छिपाये बैठी 
मन के बन्द-बक्से में 
रखीं हैं जिसमे यादों के साथ 
अठन्नी-चबन्नी और गुड़िया के बरतन
वो गुड़िया जो बड़ी ही नहीं हुई आज तक ...
ऊपर से ये अधूरे पन्ने,
बेदम होने लगे,
सुन्न,
जर्जर,
शरीर पीला पड़ गया लगता है..
ठीक वैसे ही,
जैसे...
पतझड़ में प्यासी दरख्त 
और अंतिम सांस लेते सूखे पत्ते,
लगता है,
मानो अकाल सा पड़ गया हो...
शब्दावली में..
स्तब्ध,
नि:शब्द बैठी
भीषण-गर्मी और आँखों में सैलाब ..
लो शायद बह जायेंगे अब...
हम-तुम और सब,
शब्द-बाढ़ में..
आ रहीं नयी कोपलें,
रंग-बिरंगी पंखुड़ियाँ,
कविता के नये शब्द बनकर,
खिलेंगे अब फूल मनभावन...
सुनो, चौकन्ने रहना...
कोई तोड़ ना ले
और रह जाये दरख्त फिर एकाकी,
इन्तजार में नई कोपलों के..
जैसे
पथिक बिन पानी
पन्ने बिन कहानी...

समीक्षा "एक प्रारम्भ"
07/07/19©® "अधूरे पन्ने"

एक के बाद एक
अधूरे पन्ने...
हुए व्याकुल,
नयी रचना के इन्तज़ार में ,
ठीक वैसे ही,
जैसे,

"अधूरे पन्ने" एक के बाद एक अधूरे पन्ने... हुए व्याकुल, नयी रचना के इन्तज़ार में , ठीक वैसे ही, जैसे,

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

जितनी बड़ी सोच...
उतना बड़ा लक्ष्य...
कुछ समाज सजाने में मशरूफ हैं, कुछ अपनी जाति बचाने में ... जितनी बड़ी सोच...
उतना बड़ा लक्ष्य...
कुछ समाज सजाने में मशरूफ हैं, कुछ अपनी जाति बचाने में ...

जितनी बड़ी सोच... उतना बड़ा लक्ष्य... कुछ समाज सजाने में मशरूफ हैं, कुछ अपनी जाति बचाने में ...

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समीक्षा "एक प्रारम्भ"

जितनी बड़ी सोच...
उतना बड़ा लक्ष्य...
कुछ समाज सजाने में मशरूफ हैं, कुछ अपनी जाति बचाने में ... जितनी बड़ी सोच...
उतना बड़ा लक्ष्य...
कुछ समाज सजाने में मशरूफ हैं, कुछ अपनी जाति बचाने में ...

जितनी बड़ी सोच... उतना बड़ा लक्ष्य... कुछ समाज सजाने में मशरूफ हैं, कुछ अपनी जाति बचाने में ...


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