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niranjankumarjha1756
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Niranjan Kumar Jha

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Niranjan Kumar Jha

जन्मदिवस की आत्मीय शुभकामनाएं

पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।

निरंजन झा  निर्वेद

©Niranjan Kumar Jha #DearKanha
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Niranjan Kumar Jha

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Niranjan Kumar Jha

मनक पाखी ( मैथिली)

नैन जलाञ्जली नेने,
अनवरत अर्घ्य दैत,
सांत्वना दैत, आ..कि..
ढाढस बान्हि मन केँ,
फुसला रहल ओ निसि।

मनक उद्वेगक वेग ,
कुनु यान सँ कम कतय,
एकरा कुन ईंधन अछि?..
उत्प्लावकता कतय सँ भेटलन्हि,
कुन अनुसंधान कर्ता ,
उड़बाक ज्ञान देलकैन्ह?....

कखनहुँ बैसबाक नाम नहि,
लागैत जेना घुरघुरा पैरे अछि,
पाँखि कतय लागल अछि?
उड़बाक लेल....
अलबत्ते चालि चलैत मन!!...
आह...!!..रे मन पाखी छै?..

टटका-टटकी गप्प सँ,
बसिया गप्प तक छलांग?
हे..हे.. आकि...मन घुप्प!!.
पुनः कल्पना के उड़ान ,
झक द कतय सँ कतय।

मनक अथक परिश्रम,
सुतलो में सपनाइत ई,
लागैत अछि दुनु पाखी
एके सँग उड़ब बन्द करत।
नयन सजल भ रहल अछि,
कोसीक कछेड़ जँका,
दुनु गाल पर कतेक धार,
नोर जेना कि झोर भ गेल।

कतेक सोचब?..की - की ?.
थाकल हैब त सुसस्ता लिय।
नहि-नहि अपनैक बैसबा सँ,
हमर अस्तित्व ही निपत्ता!
चलू तखन उड़िते रहू...
अहाँ उड़िते रहू, 
मुदा अपन सीमान्तक में......

निरंजन झा "निर्वेद"

©Niranjan Kumar Jha
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Niranjan Kumar Jha

विषय :- गज़ल
212     212     212       212
यह शहर अब मिरा हम शहर हो गया।
जब सुना मयकदों का क़दर हो गया।।
कौन है जो मिरा हाल  दिल का सुने।
सोच भी तो सभी का ज़हर हो गया।।
चाँद की चाँदनी    में चमक ही नहीं।
रात पर भी अभी तो कहर हो गया।।
मैं किधर चल सकूँ ये पता अब नहीं।
जब दिले -हाल में ही जजर हो गया।।
मयकशों की तरह    सब मुझे देखते।
देख मय को मिरा दिल शज़र हो गया।
ग़ैरतों  से भरी   महफ़िलें आज भी।
आदमी का नया ही    डगर हो गया।
जब "निर्वेद" के  कभी सुने ही नहीं।
चुप रहें बस यही वो पहर आ गया।।
निरंजन झा "निर्वेद"
हुब्बली कर्नाटक।

©Niranjan Kumar Jha #Tuaurmain
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Niranjan Kumar Jha


विषय:- गज़ल
बहर:- बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम।
वज़्न:- 212  212  212  212

आपके प्यार का इक करम चाहिए।
और तो उस नज़र का रहम चाहिए।।

हम बढ़े थे कभी आप ही कि तरफ़।
उस घड़ी की जरा सा भरम चाहिए।।

कौन है अब मिरा बिन तिरे अब यहाँ।
हाथ तो अब तिरा बस नरम चाहिए।।

याद है वह सफ़र जब कटी साथ थी।
बस वही साथ अब भी गरम चाहिए।।

पाक हो जब नियत में कहें कुछ तभी।
 अब जरा "निर्वेद" को शरम चाहिए।।

मिसरिया:-- निरंजन झा निर्वेद।
मिति:-- १९/०४/२०२३

©Niranjan Kumar Jha
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Niranjan Kumar Jha

मुझे ये गुमा था है मुझसे जमाना ।
तुझे ये गुमा था है तुमसे जमाना ।।
मेरा गुरूर अब न है     तिरा गुरूर ।
जब टूटा भरम तब हँसता जमाना।।.
...निर्वेद

©Niranjan Kumar Jha #Flower
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Niranjan Kumar Jha

निज भाषा की उन्नति

कैसे करूँ निज      भाषा की उन्नति।
सब पीछे पड़े हैं   निजता की उन्नति।।
माँ की मर्यादा कोई  सुपुत्र ही जाने।
बिन मातृभाषा की कैसी हो उन्नति।।

आंग्ल -फ़ारसी मोहे    आँख दिखाती।
हिंदी पर वे अपनी अधिकार जताती।।
ऊँचे ऊँचे पदों पर आंग्ल के राज अब।
मेरी बेबसी पर देखो कैसे ये इठलाती।।

शिक्षा  अस्तर पर   कुछ तो काम करें।
निज भाषा का कुछ हम तो मान धरें।।
जिसकी देववाणी हो   मूल स्रोत तब ।
कहो उसे छोड़ किसका  सम्मान करें।।

सब भाषओं का मान   करना जानता।
आत्म सम्मान के लिए मरना जानता।।
हम आधुनिकता के  दौड़ में अँधा नहीं।
निर्वेद दूसरों से दो हाथ करना जानता।।

निरंजन झा "निर्वेद"
हुब्बली, कर्नाटक।

©Niranjan Kumar Jha
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Niranjan Kumar Jha

#मुख़ातिब

मैं अपने आप से ही मुख़ातिब हूँ।
कौन कहता है तुझसे मुख़ातिब हूँ ?
आदमी को यह भरम मार न डाले।
इस हकीकत से मैं तो मुख़ातिब हूँ।।

निरंजन झा निर्वेद
हुब्बली, कर्नाटक।।

©Niranjan Kumar Jha #SunSet
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Niranjan Kumar Jha

सूरज

हे!   अरुण,     हे! भाष्कर।
हे!    दीनन के    दिवाकर।।
हे!   तमहारक     जगत के।
हे!    काल के तुम दिनाकर।।

हे! ऊषा के       पालनहार।
हे!   रवि के      हाँकनहार।।
हे!    शीतहारक   जगत के।
हे!    देव हो तुम  उष्माकर।।

हे! राहु - केतु के पालनहार।
हे! शनि के   तुम पालनहार।।
हे! नियति के तुम वरदायक ।
हे! जीवन चक्र घुमाननहार।।

हे! ब्राह्मण तुम कर्मदायकर।
हे!परम पिता टीम  सुधकर।।
हे! गायित्री -सावित्री रचिता।
हे! देवन के    तुम प्रभाकर।।

निरंजन झा निर्वेद

©Niranjan Kumar Jha #friends
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Niranjan Kumar Jha

गज़ल

तेरी जुस्तजू गम ए हवादिस से शनाशाई है।
दिल को पूछो तो कभी ये दर्द की शहनाई है।।

जब होशोहवास अपने जेहन से गुमशुदा हो।
समझो ईक दर्द की   दरिया में उतर आई है।।

इश्क़ करना ही ईक दर्द के सोज में पिघलना।
क्या करे कोई जब वक्र ही वक्र पे हरजाई है।।

मेरी कामत तुझे पाने को शरमसार है करती।
मुझे लग रहा यहाँ इश्क़ में बड़ी ही गहराई है।।

जिंदगी तिरी रहगुजर में   पुरकैफ़ मुक़म्मल।
गर जुदाई मुक्कमल   तो वस ईक तन्हाई है।।

माज़ी में मुझे कोई   एहसास हुआ ही  कहाँ।
मुस्कक़बिल में तिरे    इश्क में क़सम खाई है।।

तिरी चाहतों में मैंने क्या क्या न रुस्वाई सहे।
अब लोग कहते हैं यह निर्वेद" की सौदाई है।।

मिसरिया :- निरंजन झा "निर्वेद"

©Niranjan Kumar Jha #touch
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