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धीमान संदीप

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धीमान संदीप

अभी देखी कहां है तूने मेरी मोहब्बत की इन्तहा

अपनी मौत तक इंतजार करूंगा,समझ इम्तहा.....

तुमने ही सवार कराया था मोहब्बत की कश्ती में

अब खुद ही कर रहे हो हमको खुद सें दूर तन्हा....

बैठे है हम भी अधियारें में दिया जलायें इंतजार में

कभी तो सवेरा होगा,रात भी कितना लेगी सूरज का इम्तहा...

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धीमान संदीप

कही रेत सा जिवन झड रहा है
सभाव अपनो का बदल रहा है,
पकड पड रही है जो ढिली
हाथ से साथ निकल रहा है।

चुुपचाप बेअवाज बिसर रहा है
अस्तित्व प्यार का बदल रहा है,
बनी थी इमारत जिस पर अपनी
वो समय चाहत का फिसल रहा है।

कोशिस है की रोक लू इसको
हाथ फैला दुजा थाम लू इसको,
अस्तित्व मतलब का बदल रहा है
माईने प्यार का वक्त बदल रहा है।

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धीमान संदीप

चलते रहे यू ही बिन खुद को जाने
दुनियां में आये बस दुनियां को जाने,

जैसे कोरे आये थे वैसे ही चल दिये
दुनियां को समझा,खुद को हम समझ न पाये,

थके नही,रूके नही, बस चलते जाये
दुनियां में रहने के फेर में, खुद में रह न पाये,

भेड चाल सी लगी है ऐसी,बस चलते जाये
दो पल भी हम खुद के पास  ठहर न पाये।

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धीमान संदीप

उम्र दर उम्र पत्तो से झड कर सुखते हम
फक्त पल भर का है खेल
न जाने किस घडी किस पल डूबते हम,

कट रही है दर बदर जीवन की हरियाली
शाख से जुदा होता है मेल
न जाने जुदाई के बाद ही क्यो सोचते हम,

खाक मिट्टी में हो,जब मिट्टी में लोटते हम
जीवन आने जाने का खेल
थक हार अंत मिट्टी को मिट्टी में रौंदते हम।

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धीमान संदीप

उम्र दर उम्र पत्तो से झड कर सुखते हम
फक्त पल भर का है खेल
न जाने किस घडी किस पल डूबते हम,

कट रही है दर बदर जीवन की हरियाली
शाख से जुदा होता है मेल
न जाने जुदाई के बाद ही क्यो सोचते हम,

खाक मिट्टी में हो,जब मिट्टी में लोटते हम
जीवन आने जाने का खेल
थक हार अंत मिट्टी को मिट्टी में रौंदते हम।

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धीमान संदीप

चाहत है दो नयन मिलाऊं
पर मिलाऊ तो कैसे,

शिव चरण खुद को चढाऊ
चढाऊं तो चढाऊं कैसे,

मन मंदिर मे दीप जलाऊ
जलाऊं तो जलाऊं कैसे,

पुष्प अर्पित करने थे मन के
भाव वो मै लाऊं कैसे,

सरल  सभाव ले मै पहुचा
पग उसके मै पाऊ कैेसे,

दर्श दिखा दो हे शिव शम्भो
मन मंदिर मै लाऊं कैसे।

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धीमान संदीप

कुछ कहानियां हमसे गुजरी
कुछ कहानियों से हम गुजरे,

बन गये हम खुद में कहानी
छू कर हमको जब वो गुजरे

कहानी लिखी कुछ ऐसी कलम से
मिटती न मिटायें,दिल चाहे कितना मुकरे,

लहरो सी वो छू कर निकले
आँखे भीगो वो हर पल गुजरे।

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धीमान संदीप

कहूं  राम  नाम  मै  या  हरे  राम  कहूं,
शव बन शिव सा रहूं या शिव ध्यान गहूं।

औत-प्रौत, क्रौध, घनिष्टता  है या  है लोभ,
उधडती आत्मा हर रोज,क्या यही है भोग।

भोग भोगे भोगना, भोगे अंत कर्म सब भोग,
सत्य,सचिदानंद,साधना, सत्य नौचे हर रोज।

मल,मैल मिटाये कैसे, मन शक्ति लगाये जोर,
उधडते धागे मन चादर के,सिलू मै किस डोर।

राम नाम भर मन उर्जा, शिव सा ध्यान लू मै औढ,
हे परम पिता परमेशवर,राह सत्य पर मेरी दो मोड।

सत्यम शिवम् सुंदरम

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धीमान संदीप

मरहम बन कर आये थे
जख्म देकर चले गये,,
हाथ थमा कर हमको अपना
सपना दिखा कर चले गये।

बगियां सपनो की दिखा
कांटे चुभा कर चले गये,
हाथ फैलाये खडे है हम
वो हाथ छुडा कर चले गये

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धीमान संदीप

रिमझीम रिमझीम फूवांरो में
किसी की याद का सहारा है,
न हम किसी के हुऐ
न कोई हमारा ही है,
प्रकृती में वास शिव का
और शिव ही हमारा है।

सुप्रभात
हरि ऊँ नमः शिवाय

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